बाती और चराग

बाती की लौ भभक

कर लहराई।

बेचैन चराग ने पूछा –

क्या फिर हवायें सता रहीं हैं?

लौ बोली जलते चराग से –

हर बार हवाओं

पर ना शक करो।

मैं तप कर रौशनी

बाँटते-बाँटते ख़ाक

हो गईं हूँ।

अब तो सो जाने दे मुझे।

9 thoughts on “बाती और चराग

  1. बहुत अच्छी बात कही है रेखा जी आपने शमा की ज़ुबानी। मिर्ज़ा ग़ालिब की क्लासिक ग़ज़ल – ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक’ का अंतिम शेर है:

    ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़
    शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक

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    1. वाह! ख़ूबसूरत शेर ।शुक्रिया share करने के लिए।
      हम अक्सर दूसरों पर दोष डालते रहतें हैं। हवा के झोंकें से चिराग़ बुझ गया। पर कई बार कुछ बातों के अपने भी कुछ कारण होतें हैं।

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