Category: Spinning Yarns Ever Since!
Myths, Fables and Fairy Tales!! Seldom do they die! Unlike palaces, monuments and temples they stand the test of time! Because the former originates amidst the people and journeys from one corner of the world to the other through word of mouth migrating from one tribe to another civilization to yet another society residing momentarily but never settling down forever! Because Stories are Nomads! They seldom rest or seldom die! They will wander the world carried by mankind to all the corners of the world transcending the parochial boundaries created by humans themselves!! I too am a proud Raconteur and I am Spinning Yarns Ever Since!!
माँ के सकारात्मक शब्दों का जादू (सच्ची कहानी)
एक छोटे बच्चे ने स्कूल से आ कर अपनी माँ को एक कागज दिया। उसने कहा, “माँ, मेरे शिक्षक ने यह लेटर दिया है और कहा, इसे सिर्फ़ तुम पढ़ोगी। माँ, इसमें क्या लिखा है?” माँ ने ऊँची आवाज़ में पढ़ा- “आपका बेटा एक जीनियस है। यह स्कूल उसके लिए बहुत छोटा है और उसके लायक़ प्रशिक्षित और अच्छे शिक्षक हमारे पास नहीं हैं। कृपया आप उसे स्वयं पढ़ाएं।” बच्चे की माँ ने यही किया। आगे चल कर वह सदी का सबसे महान वैज्ञानिक बन गया। जिसने अनेक महत्वपूर्ण खोज किये।
मां की मृत्यु के कई सालों बाद, उस महान वैज्ञानिक को अपनी माँ के काग़ज़ों में अपने शिक्षक का लिखा वही पुराना पत्र मिला, जिसे उसके शिक्षक ने सिर्फ़ उसकी माँ को देने कहा था। उस वैज्ञानिक ने उसे खोला और पढ़ने लगा। पत्र में लिखा था – “आपका बेटा मानसिक रूप से कमजोर है। हम उसे अब अपने स्कूल में नहीं आने दे सकते। उसे स्कूल से निकाला जा रहा है।” यह थॉमस एडिसन के बचपन की सच्ची कहानी है। शिक्षक के नोट को पढ़ने के बाद एडिसन ने अपनी डायरी में लिखा: “थॉमस एडिसन एक मानसिक रूप से कमजोर बच्चा था जिसकी माँ ने उसे सदी के जीनियस में बदल दिया।” वाणी वह हथियार है और जो नष्ट या निर्माण, उत्थान या पतन कर सकती है।
संजना – कहानी
स्टेशन के बाहर भीख मांगतीं दो विक्षिप्त सी लगती महिलाएं बैठी थी। उनका विलाप इतना करुण था कि सभी का ध्यान खींच लेता। उनके पुराने ,धूल भरे, फटे कपड़े, गंदे बिखरे बाल देखकर सभी द्रवित हो जाते। तीन दिनों से उन्होंने कुछ नहीं खाया है। यह सुनकर हर आने जाने वाले कुछ ना कुछ पैसे उनके सामने रखें डाल देते। उनके टेढ़े ,पिचके, टूटे और गंदले से अल्मुनियम के कटोरी में डाले सिक्कों की खनक से उनके चेहरे पर राहत के भाव आ जाते थे।
आज अपनी अपनी जिंदगी के भागदौड़ में सभी व्यस्त हैं। जिंदगी इतनी कठिन और रूखी हो गई है कि किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय नहीं है। इन महिलाओं को देखकर शायद ही किसी को ख्याल आता होगा कि इनसे इनकी परेशानियां पूछी जाए। इनकी कुछ उचित सहायता की जाए। जिससे इनको इस दर्द भरी, श्रापित जिंदगी से मुक्ति मिले। भीख में कुछ छुट्टे पैसे डाल कर सभी अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
दरअसल भिक्षा में पैसे देकर कर्तव्य मुक्त हो जाने का हमारा इतिहास पुराना है। प्राचीन समय से हमारा देश और हम सभी बेहद सहनशील रहे हैं। हमारे भारत में बहुत पुराने समय से भिक्षावृत्ति एक सामाजिक प्रथा रही है। प्राचीन समय से साधु-संतों और विद्यार्थियों को भिक्षा देने का चलन था। ईश्वर की खोज में लगे साधु-संत भिक्षुक के रूप में ही जिंदगी बिताते थे।
वैदिक काल से उन्हें भोजन या धन दान में देना पुण्य माना जाता रहा है। प्राचीन गुरुकुलों और आश्रमों में शिक्षण निशुल्क होती थी। वहां पढ़ने वाले विद्यार्थी अक्सर आसपास के ग्रामों से भिक्षा मांग कर जीवन चलाते थे। इस प्रथा को सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखा जाता था।
कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि खास दिनों पर भिक्षा या दान देखकर ग्रहों के बुरे असर को कम किया जा सकता है। इसलिए हमारे सहिष्णु समाज में, भीख देने की एक सहज प्रवृत्ति है। जरूरतमंदों को मदद करने का यह एक तरीका है। पर आज इस भिक्षावृत्ति का रूप बिगड़ गया है। कुछ लोगों ने इससे गलत तरीके से धन अर्जित करने का धंधा बना लिया हैं।
स्टेशन के बाहर पीपल के विशाल पेड़ के नीचे धूप और छाया खेल रही थी। वहां बैठी दोनों भिखारी महिलाएं बेहद कमजोर और दुबली पतली थी। उनकी हड्डियां तक नजर आ रही थीं। दोपहर की धूप तेज हो गई थी । सूरज सिर के ऊपर चमक रहा था। गर्मी और तपिश बढ़ गई थी। स्टेशन पर भीड़ काफी कम हो चुकी थी। शायद अभी किसी ट्रेन के आने का समय नहीं था। भीड़-भाड़ कम देखकर दोनों भिखारन ने एक दूसरे को देखा। नजरों ही नजरों में दोनों में कुछ बातें हुई।
दोनों फटे मोटे से टाट पर बैठी थीं। एक भिखारन ने टाट के एक कोने का हिस्से उठाते हुए दूसरे को कहा – “विमला ताई, देख इधर। आज तो दिन अच्छा है। मुझे बहुत पैसे मिले हैं।” विमला ने नजरें उठाकर देखा। ढेर सारे सिक्के और रुपए देखकर बोल पड़ी – ” हां, आज तूने तो बहुत कमाएँ हैं। मुझे तो आज बिल्कुल ही पैसे नहीं मिले हैं। ना जाने जग्गू दादा आज क्या करेगा? संजू, अच्छा है तू आज मार नहीं खाएगी। लगता है आज मेरा दिन ही खराब है। दो दिनों बाद आज तो रोटी मिलने का दिन है। कम पैसे देखकर ना जाने वह हरामी ठीक से खाना भी देगा या नहीं? “
संजू ने बड़ी सावधानी से दाएं बाएं देखा। फिर धीरे से मुस्कुराकर हाथ बढ़ा कर एक मुट्ठी सिक्के विमला के अल्मुनियम के कटोरी में डाल दिया और बोली – “अब तो तू भी मार नहीं खाएगी। पर आज तु देर से क्यों आई? तू तो जानती है कि सुबह में ज्यादा लोकल ट्रेनें गुजरती है। इसलिए सुबह के समय ही ज्यादा पैसे मिलते हैं। अच्छा जाने दे, आज तो हमें रोटियां देगा ना जग्गू दादा? अच्छा बता ताई, हम इन्हें इतने पैसे कमा कर रोज-रोज देते रहते हैं। फिर भी ये हमें ठीक से खाना क्यों नहीं देता है?”
विमला ने कड़वा सा मुंह बनाया। फिर अपने होठों को विद्रूप से बिचका कर बोल पड़ी – ” तू भी बिल्कुल पागल है संजू। हम खा पी कर मोटे दिखे, तो किसे हम पर दया आएगी? सारा खेल तो पैसों का है। ज्यादा पैसे भीख में मिलने के लिए हमें गरीब, गंदा और दुर्बल तो दिखना ही होगा ना?” फिर वह सावधानी से चारों ओर नजरें दौड़ाने लगी। धूप अब तक तीखी हो गई थी। विमला ने फटी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरा पर बह आए पसीने को पोछा। फिर बड़ी धीमी आवाज में फुसफुसा कर बोली – “ना जाने क्यों जग्गू दादा नजर नहीं आ रहा है। बड़ा कमीना है यह भी। ना जाने आज भी कहां से एक भली सी लड़की को उठा लाया है। उस लड़की ने होश में आते रोना-धोना और शोर मचाना शुरू कर दिया था।
जग्गू और उसके गुंडो के कहने पर भी जब वो चुप नहीं हुई। तब उन्होंने बेरहमी से उसे मारना शुरू कर दिया। तूने तो देखा ही है यह सब। बड़ी मुश्किल से उस लड़की को समझा-बुझाकर चुप करा पाई हूं। इन्हीं सब में इतना समय लग गया।” विमला की आंखों से आंसू बहा आए थे। उसके नाक से भी पानी बहने लगा था। उसने अपना बाहँ मोड़ा और अपने सिलाई उधड़े ब्लाउज के बाजू से अपनी आंख और नाक पोछने लगी। फिर वह धीमी आवाज में फुसफुसाने लगी – ” भले घर की लड़की लगती है। अभी कच्ची उम्र की है। जग्गू और उसके गुंडों को कीड़े पड़े।”
दोनों की बातें अभी चल ही रही थी तभी संजू ने गौर किया। उसके बिल्कुल सामने कोई व्यक्ति आकर खड़ा है। उसने संजू के कटोरे में 5 रुपए का सिक्का ऊपर से गिराया। सिक्कों की खनखनाहट से चौंक कर संजू ने बातें बंद कर दी। संजू नजरें उठाकर उसे देखने लगी। एक उम्रदराज़ पुरुष वहाँ खड़ा होकर उसे बड़े गौर से देख रहा था। उसके सारे बाल सफ़ेद थे। जिस हाँथ से उसने संजू की कटोरे में पैसा डाला, वे अधिक उम्र की वजह से काँप रहे थे।
संजू और विमला को पुरुषों की गंदी और ललची नजरों का सामना करने की आदत पड़ गई थी। इसलिए संजू ने उस व्यक्ति को देख कर भी अनदेखा कर दिया। फिर संजू ने अपनी फटी साड़ी से अपने फटे ब्लाउज को ढकने की कोशिश करने लगी। फटे ब्लाउज में आधी नग्न पीठ नजर आ रही थी। नंगी पीठ को ढकने की उसकी कोशिश असफल रही। वह व्यक्ति वही खड़ा रहा। शायद उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी या कुछ कहना चाहता था।
इस बार विमला ने कड़वी और तीखी आवाज में कहा – ” क्या बात है? साहब आगे जाओ ना?” विमला, संजू से उम्र में काफी बड़ी थी। उसके आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे। चेहरे पर झुर्रियां ही झुर्रियां थी। आंखों के नीचे कालापन था। जबकि संजू की उम्र ज्यादा नहीं थी। गरीबी की मार से दबी संजू को गौर से देखने पर वह खूबसूरत लगती थी। यह उसे देख कर समझा जा सकता था, कि उसकी खूबसूरती मैंले कपड़ों में छुप गई है।
महिला सौंदर्य के लोलुप पुरुषों के ललचाई नजरों को देखकर विमला अक्सर संजू की हिफाजत के लिए लड़ पड़ती थी। उस व्यक्ति को तब भी जाते नहीं देखकर, संजू ने अपना पुराना पैंतरा चला। वह पागलों की तरह हरकतें करने लगी और धीमी आवाज में फुसफुसा कर बोली – ” क्यों खाली पीली परेशान हो रही है ताई? जग्गू रहता तो अभी रेट तय करने लगता। देखो ज़रा बुड्ढे को। पैर क़ब्र में लटकें हैं। फिर भी…..।”
संजू ने अपनी बातें पूरी भी नहीं की थी। तभी उस व्यक्ति ने उसे धीरे से पुकारा – ” संजना, संजना, तुम संजना होना? मैं तुम्हें पहचान गया। तुम बिरार में रहने वाली गोकुल काले की बिटिया संजना ही होना ना? मैं तुम्हारा राघव काका हूं बिटिया। तू मेरी बेटी गुड़िया के साथ खेल कर बड़ी हुई है। मैं तुझे कैसे नहीं पहचानूगां? पहचाना नहीं क्या तुमने मुझे?” इसके साथ हीं उस व्यक्ति ने अपने चेहरे पर लगा हुआ मास्क हटाया।
विमला और संजू ने चौंक कर उस व्यक्ति को गौर से देखा। वह वृद्ध अपने आप हीं बोलता जा रहा था – ” तुम कहां गायब हो गई थी? तुम्हारे सारे परिवार वाले और तुम्हारे पति ने तुम्हें खोजने की बहुत कोशिश की थी। फिर थक हार कर दूसरी शादी कर ली तुम्हारे पति ने। वह बेचारा भी कितने साल इंतज़ार करता?
इतने सालों बाद आज तुम मुझे यहां, ऐसी हालत में मिली हो। तुम्हारी बेटी अब बड़ी हो गई है। बड़ी प्यारी बच्ची है। चलो मैं तुम्हें उनके पास ले चलता हूं। मेरे साथ घर चलो” संजू की आँखें ना जाने क्यों गीली हों गईं। वह अपने आप में बुदबुदाई – इतने साल? कितने साल? पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया। संजू को चुप देख कर, उस व्यक्ति ने संजू की कलाई पकड़ ली और खींच कर अपने साथ ले जाने लगा। विमला घबराहट में संजू की दूसरी कलाई पकड़कर अपनी ओर खींचने लगी और शोर मचाने लगी। इतने हो हल्ला का नतीजा यह हुआ कि वह चारों तरफ भीड़ इकट्ठी हो गई।
कुछ देर संजू खाली-खाली नजरों से उस व्यक्ति को घूरती रही। तभी अचानक ना जाने क्या हुआ। संजू पर जैसे पागलपन का दौरा पड़ गया संजू अपना माथे के बाल खींच खींच कर पागलों की तरह चिल्लाने लगी। विमला ताई ने संजू का। चेहरा देखा और वह भी अचानक बिल्कुल गुमसुम और चुप हो गई।
उस वृद्ध व्यक्ति ने हार नहीं मानी। उसने संजू का हाथ ज़ोरों से पकड़ लिया और अपने साथ खींच कर ले जाने लगा। इतनी भीड़ और हल्ला सुनकर पास की चाय की गुमटी पर बैठकर चाय पीते हुए पुलिस के कुछ सिपाही वहां आ गए। पुलिस वाले ने बीच-बचाव किया। पर वह व्यक्ति टस से मस नहीं हो रहा था। वह अपनी बात पर अड़ा हुआ था। अंत में पुलिस वाले संजू, विमला और उस व्यक्ति को लेकर पुलिस स्टेशन चले गए।
वह व्यक्ति राघव, पुलिस इंस्पेक्टर को पूरी कहानी सुनाने लगा। यह घटना 1983 की है। संजना एक बैंक में काम करती थी। रोज वह अपने सहयोगियों के साथ लोकल ट्रेन से ऑफिस चर्चगेट आती जाती थी। वह बड़ी खुशमिजाज, जिंदगी से भरपूर, कम उम्र की एक खूबसूरत विवाहित महिला थी।
उस दिन वह बड़ी ख़ुश थी। अगले दिन उसकी बेटी का जन्मदिन था। जिसे वह बड़े धूमधाम से मनाना चाहती थी। उसने अपने ऑफिस में सभी को अपने घर, विरार आमंत्रित किया। उस दिन ऑफिस से घर से लौटते समय वह लोकल ट्रेन से जोगेश्वरी में उतर गई। उसने अपनी सहेलियों को बताया, उसे वहां अपनी ननद के घर उन्हें निमंत्रण देने जाना है।
लेकिन उसके बाद वह कभी घर नहीं लौटी। पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई काफी छानबीन होती रहा। पर कुछ नतीजा नहीं निकला। इतने वर्षों में उसके पति ने दूसरी शादी कर ली है। संजना की बेटी बड़ी हो चुकी है। संजना के माता पिता नहीं रहे। उसके भाई की शादी हो गई है। संजू और विमला वहीं सामने बेंच पर बैठी सब बातें सुनती रहीं।
आज वर्षों बाद संजना अपने पड़ोसी को इस हालत में मिली है। राघव ने इंस्पेक्टर से थोड़ा वक्त मांगा ताकि वह संजना के भाई को बुला कर ला सके। इंस्पेक्टर के आश्वासन देने पर राघव संजना के भाई को बुलाने चला गया। पुलिस इन्स्पेक्टर ने विमला और संजू वही एक बेंच बैठ कर इंतज़ार करने कहा।
वृद्ध राघव के जाने के बाद विमला ताई संजू के बिल्कुल बगल में खिसक आई और बिलकुल धीमी आवाज़ में बोली – “घबरा मत संजू। पर मुझे तू एक बात बता, कि क्या यह आदमी सच बोल रहा था?” संजू ने विमला ताई की हथेलियां अपनी हथेली में कसकर पकड़ लिया। अपने सूखे पापड़ीयाये होठों पर अपनी जीभ फेराई । उसकी आँखें डबडबा आईं थी। बेहद सहमी और धीमी आवाज में संजू बोल पड़ी – ” हां यह बिल्कुल सच बोल रहा है ताई। जिस दिन मेरी किडनैपिंग हुई। उस दिन मैं लोकल ट्रेन से जोगेश्वरी में से उतर कर ऑटो में बैठी। वहाँ सड़कें थोड़ी सुनसान थीं। अँधेरा घिर आया था।अचानक ना जाने बगल में बैठे व्यक्ति ने क्या किया। मैं बेहोश हो गई। होश में आने पर मैंने अपने को जग्गू दादा के अड्डे पर पाया। तब समझ आया की ऑटो में बैठे अन्य दो लोग और ड्राइवर सभी जग्गू के आदमी थे।
आगे की तो सारी कहानी और मेरी सारी जिंदगी तू जानती है।” विमला ताई ने उसकी हथेलियों को और कसकर पकड़ लिया और बोल पड़ी – ” पागल है क्या तू? इतना अच्छा मौका मिला है। चुपचाप चली क्यों नहीं जाती वापस? इस नर्क में जीने का क्या फायदा? संजू के दुबले-पतले गालों पर आंसू बहने लगे थे। उसने उन्हें पोंछने की कोशिश नहीं की। विमल ताई को देख कर बोल पड़ी – ” ताई तुझे क्या लगता है मैं वापस नहीं जाना चाहती हूं? आज तक हर रात यही सपना देखा कि मेरा पति और परिवार वाले मुझे यहां से बचा कर ले जाएंगे। मैं फिर से अपनी खुशहाल जिंदगी में वापस लौट जाऊंगी।”
संजू दो मिनट मौन हो गई। फिर उसने दबी जबान में बोलना शुरू किया – ” ताई तूने गौर किया ना? राघव काका मुझे ले जाना चाह रहे थे। तब चारों तरफ से जग्गू के गुंडों ने घेर रखा था। एक नें मेरे कानों में धीरे से कहा – ” बिल्कुल चुप रह। चाकू के एक हीं वार से बुड्ढे की आँतें यहां जमीन पर फैल जाएंगी। इस बुड्ढे की बेटी-वेटी है क्या? तेरी सहेली थी ना इसकी बेटी? बता उसे भी उठा लाएंगे। उसके साथ तेरा मन लगा रहेगा।”
अब तू ही बता ताई क्या वह हमें इतनी आसानी से यहां से जाने देंगे? और अगर मैं निकल कर चली भी गई, तब कहां जाऊंगी? तूने सुना नहीं क्या ? पति ने दूसरी शादी कर ली है। बेटी बड़ी हो गई है। मेरी जिंदगी की कहानी उसकी जिंदगी बर्बाद कर देगी। भाई अपने परिवार के साथ व्यस्त होगा। माता-पिता रहे नहीं। मेरी नौकरी भी जा चुकी है। मुझे तो याद हीं नहीं रहा था कि कितने साल बीत गए हैं। दुनिया बहुत आगे निकल गई है। इस नई दुनिया के लोगों के बीच मेरी कोई जगह नहीं।
इतने साल तक इस माहौल में रहने के बाद, बदनामियां क्या पीछा छोड़ेंगीं? क्या उस दुनिया में किसी को मेरा इंतजार है? क्या कोई मुझे अपने साथ रखना चाहेगा? शुरू के कुछ साल तो नशीली दवाओं के इंजेक्शन में मुझे कुछ होश ही नहीं रहा। अब तो उस नशे की आदी हो चुकी हूं। दिमाग भी इन नशे की दवाइयों के बिना पागल हो जाता है। अब बाकी जिंदगी भी अब इसी नर्क में कटेगी। यही अब हमारी दुनिया बन गई है ताई।” बोलते बोलते धीरे से सिसक पड़ी संजू। संजू थोड़ा रुकी और फिर बोल पड़ी – “ताई, जब तक यह बाजार सजता रहेगा। तब तक औरतों किड्नैप होतीं रहेंगी, बिकती रहेंगी । यह सब चलता रहेगा। अगर खरीदारी ना रहे। तब ना समय बदल सकता है। जहां भी चरित्र की बात होती है, लोग औरतों पर क्यों उंगलियां उठाते हैं? क्या औरत कभी भी अकेली चरित्रहीन हो सकती है?
तभी पुलिस स्टेशन में जग्गू दादा अपने कुछ गुंडों के साथ पहुंचा। उसने इंस्पेक्टर को देखते हुए कहा – ” साहब यह मेरी बहन है। इसका दिमाग बिल्कुल खराब है। बिल्कुल पगला गई है। पागलपन में या ना जाने क्या-क्या करती रहती है। हम लोग गरीब आदमी हैं साहब। पेट भरने के लिए भीख मांगने चली आती है यह। क्या इसे मैं अपने साथ घर ले जा सकता हूं?” पुलिस इंस्पेक्टर ने प्रश्न भरी नजरों से संजू की ओर देखा। वह देर कुछ सोचता रहा। फिर उसने संजू से पूछा – ” क्या तेरा नाम संजना है? जो बात राघव ने कही क्या वह सच है? या यह तेरा भाई है?” संजू की हथेलियां पसीने से भीग गई थी। उसकी कांपती हथेलियों को विमला ने धीरे से सहलाया। इस बार संजू ने सिर उठाया। इंस्पेक्टर को देखकर बोली – ” साहब मैं किसी को नहीं जानती। किसी संजना को भी नहीं जानती। यह तो मेरा भाऊ मुझे लेने आ गया है। मैं तो गरीब औरत है। मैं क्या जानेगी बैंक की नौकरी? मैं घर जाएगी। मैं इसके साथ घर जाएगी।”
अपनी बात पूरी करते-करते संजू उठ खड़ी हुई। विमला की बाँहें खींचते खींचते वह पुलिस स्टेशन से निकली और चुपचाप आगे बढ़ गई। पीछे पीछे जग्गू भी निकल आया।
यह एक सच्ची घटना पर आधारित है। मेरी एक करीबी मित्र के अनुरोध पर मैंने इसे कहानी का रूप दिया है। अफसोस की बात है कि दुनिया इतनी आगे बढ़ गई है। फिर भी समाज में महिलाओं और बच्चों के साथ इस तरह के अन्याय होते रहते हैं। भिक्षावृत्ति, फ्लेश ट्रेडिंग, ह्यूमन ट्रैफिकिंग, और्गेन ट्रैफ़िकिंग जैसे अनेकों अपराध आज के सभ्य समाज पर कलंक है।

मेरी माँ ( बाल कथा – लुप्त हो रहे ऑलिव रीडले कछुओं की एक दुर्लभ प्रजाति की रोचक जानकारियों पर आधारित )
ऑलिव रीडले जो कछुओं की एक दुर्लभ प्रजाति है। समुद्र तटों पर अंडे देने काफी कम नज़र आने लगे थे। लौक-ङॉउन में ये काफी संख्या में देखे गये। अवसर मिलते हीं प्रकृती ने अपनी खूबसूरती, शक्ति अौर संतुलन को वापस पा लिया।
News – Mass hatching of Olive Ridley turtles begins at Odisha’s Rushikulya rookery
गुड्डू स्कूल से लौट कर मम्मी को पूरे घर मे खोजते- खोजते परेशान हो गई। मम्मी कहीं मिल ही नहीं रही थी। वह रोते-रोते नानी के पास पहुँच गई। नानी ने बताया मम्मी अस्पताल गई है। कुछ दिनों में वापस आ जाएगी। तब तक नानी उसका ख्याल रखेगी।
शाम में नानी के हाथ से दूध पीना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। दूध पी कर,वह बिस्तर पर रोते- रोते न जाने कब सो गई। रात में पापा ने उसे खाना खाने उठाया। वह पापा से लिपट गई। उसे लगा,चलो पापा तो पास है। पर खाना खाते-खाते पापा ने समझाया कि मम्मी अस्पताल में हैं। रात में वे अकेली न रहें इसलिए पापा को अस्पताल जाना पड़ेगा।गुड्डू उदास हो गई। वह डर भी गई थी। वह जानना चाहती थी कि मम्मी अचानक अस्पताल क्यों गईं? पर कोई कुछ बता नहीं रहा था।
उसकी आँखों में आँसू देख कर नानी उसके बगल में लेट गई। उन्होंने गुड्डू से पूछा- गुड्डू कहानी सुनना है क्या? अच्छा, मै तुम्हें कछुए की कहानी सुनाती हूँ। गुड्डू ने जल्दी से कहा- “नहीं, नहीं, कोई नई कहानी सुनाओ न ! कछुए और खरगोश की कहानी तो स्कूल में आज ही मेरी टीचर ने सुनाई थी।
नानी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया- यह दूसरी कहानी है। गुड्डू ने आँखों के आँसू पोछ लिए। नानी ने उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा, यह पैसेफिक समुद्र और हिंद महासागर में रहने वाले कछुओं की कहानी हैं। ये ग्रीन आलिव रीडले कछुए के नाम से जाने जाते हैं। हर साल ये कछुए सैकड़ो किलोमीटर दूर से अंडा देने हमारे देश के समुद्र तट पर आते हैं। गुड्डू ने हैरानी से नानी से पूछा- ये हमारे देश में कहाँ अंडे देने आते हैं? ” नानी ने जवाब दिया- ये कछुए हर साल उड़ीसा के तट पर लाखों की संख्या में आते हैं। अंडे दे कर ये वापस समुद्र में चले जाते हैं। इन छोटे समुद्री कछुओं का यह जन्म स्थान होता है।
फिर नानी ने कहानी शुरू की। समुद्र के किनारे बालू के नीचे कछुओं के घोंसले थे। ये सब घोंसले आलिवे रीडले कछुए के थे। ऐसे ही एक घोंसले में कछुओं के ढेरो अंडे थे। कुछ समय बाद अंडो से बच्चे निकलने लगे। अंडे से निकालने के बाद बच्चों ने घोंसले के चारो ओर चक्कर लगाया। जैसे वे कुछ खोज रहे हो। दरअसल वे अपनी माँ को खोज रहे थे। पर वे अपनी माँ को पहचानते ही नहीं थे। माँ को खोजते -खोजते वे सब धीरे-धीरे सागर की ओर बढ़ने लगे। सबसे आगे हल्के हरे रंग का ‘ऑलिव’ कछुआ था।उसके पीछे ढेरो छोटे-छोटे कछुए थे। वे सभी उसके भाई-बहन थे।
‘ऑलिव’ ने थोड़ी दूर एक सफ़ेद बगुले को देखा। उसने पीछे मुड़ कर अपने भाई-बहनों से पूछा- वह हमारी माँ है क्या? हमलोग जब अंडे से निकले थे। तब हमारी माँ हमारे पास नहीं थी। हम उसे कैसे पहचानेगें? पीछे आ रहे गहरे भूरे रंग के कॉफी कछुए ने कहा- भागो-भागो, यह हमारी माँ नहीं हो सकती है। इसने तो एक छोटे से कछुए को खाने के लिए चोंच में पकड़ रखा है। थोड़ा आगे जाने पर उन्हे एक केकड़ा नज़र आया। ऑलिव ने पास जा कर पूछा- क्या तुम मेरी माँ हो? केकड़े ने कहा- नहीं मै तुम्हारी माँ नहीं हूँ। वह तो तुम्हें समुद्र मे मिलेगी।
सभी छोटे कछुए तेज़ी से समुद्र की ओर भागने लगे। नीले पानी की लहरें उन्हें अपने साथ सागर में बहा ले गई। पानी मे पहुचते ही वे उसमे तैरने लगे। तभी एक डॉल्फ़िन मछली तैरती नज़र आई। इस बार भूरे रंग के ‘कॉफी’ कछुए ने आगे बढ़ कर पूछा- क्या तुम हमारी माँ हो? डॉल्फ़िन ने हँस कर कहा- अरे बुद्धू, तुम्हारी माँ तो तुम जैसी ही होगी न? मै तुम्हारी माँ नहीं हूँ। फिर उसने एक ओर इशारा किया। सभी बच्चे तेज़ी से उधर तैरने लगे। सामने चट्टान के नीचे उन्हे एक बहुत बड़ा कछुआ दिखा। सभी छोटे कछुआ उसके पास पहुच कर माँ-माँ पुकारने लगे। बड़े कछुए ने मुस्कुरा कर देखा और कहा- मैं तुम जैसी तो हूँ। पर तुम्हारी माँ नहीं हूँ। सभी बच्चे चिल्ला पड़े- फिर हमारी माँ कहाँ है? बड़े कछुए ने उन्हें पास बुलाया और कहा- सुनो बच्चों, कछुआ मम्मी अपने अंडे, समुद्र के किनारे बालू के नीचे घोंसले बना कर देती है। फिर उसे बालू से ढ़क देती है। वह वापस हमेशा के लिए समुद्र मे चली जाती है। वह कभी वापस नहीं आती है। अंडे से निकलने के बाद बच्चों को समुद्र में जा कर अपना रास्ता स्वयं खोजना पड़ता है। तुम्हारे सामने यह खूबसूरत समुद्र फैला है। जाओ, आगे बढ़ो और अपने आप जिंदगी जीना सीखो। सभी बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी गहरे नीले पानी में आगे बढ़ गए।
कहानी सुन कर गुड्डू सोचने लगी। काश ! मेरे भी छोटे भाई या बहन होते। कहानी पूरी कर नानी ने गुड्डू की आँसू भरी आँखें देख कर पूछा- अरे,इतने छोटे कछुए इतने बहादुर होते है। तुम तो बड़ी हो चुकी हो। फिर भी रो रही हो?
गुड्डू ने कहा – मैं रोना नहीं चाहती हूँ । पर मम्मी को याद कर रोना आ जाता है। आँसू पोंछ कर गुड्डू ने मुस्कुराते हुए कहा। थोड़ी देर में वह गहरी नींद मे डूब गई।
अगली सुबह पापा उसे अपने साथ अस्पताल ले गए। वह भी मम्मी से मिलने के लिए परेशान थी। पास पहुँचने प पर उसे लगा जैसे उसका सपना साकार हो गया। वह ख़ुशी से उछल पड़ी। मम्मी के बगल में एक छोटी सी गुड़िया जैसी बेबी सो रही थी। मम्मी ने बताया, वह दीदी बन गई है। यह गुड़िया उसकी छोटी बहन है।
(यह कहानी बच्चों के बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। यह कहानी ऑलिव रीडले कछुओं के बारे में भी बच्चों को जानकारी देती है। “ऑलिव रीडले” कछुओं की एक दुर्लभ प्रजाति है। ये प्रत्येक वर्ष उड़ीशा अौर कुछ अन्य तटों पर
अंङा देने आतें हैं। यह एक रहस्य है कि ये कछुए पैसिफ़ीक सागर और हिन्द महासागर से इस तट पर ही क्यों अंडे देने आते हैं।)
एक नन्ही परी- कहानी
कन्या भ्रुण हत्या पर आधारित मार्मिक, पुरानी कहानी।
विनीता सहाय गौर से कटघरे में खड़े राम नरेश को देख रही थीं। पर उन्हे याद नहीं आ रहा था, इसे कहाँ देखा है? साफ रंग, बाल खिचड़ी और भोले चेहरे पर उम्र की थकान थी। साथ ही चेहरे पर उदासी की लकीरें थीं। वह कटघरे मे अपराधी की हैसियत से खड़ा था। वह आत्मविश्वासविहीन था।
ऐसा लग रहा था जैसे उसे दुनिया से कोई मतलब हीं नहीं था। वह जैसे अपना बचाव करना नहीं चाहता था। कंधे झुके थे।शरीर कमजोर था। वह एक गरीब और निरीह व्यक्ति था। लगता था जैसे बिना सुने और समझे हर गुनाह कबूल कर रहा था। ऐसा अपराधी तो उन्होंने आज तक नहीं देखा था। उसकी पथराई आखों मे अजीब सा सूनापन था, जैसे वे निर्जीव हों।
लगता था वह जानबूझ कर मौत की ओर कदम बढ़ा रहा था। जज़ साहिबा को लग रहा था- यह इंसान इतना निरीह है। यह किसी का कातिल नहीं हो सकता है। क्या इसे किसी ने झूठे केस मे फँसा दिया है? या पैसों के लालच मे झूठी गवाही दे रहा है? नीचे के कोर्ट से उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई थी।
विनीता सहाय ने जज़ बनने के समय मन ही मन निर्णय किया था कि कभी किसी निर्दोष और लाचार को सज़ा नहीं होने देंगी। झूठी गवाही से उन्हे सख़्त नफरत थी। अगर राम नरेश का व्यवहार ऐसा न होता तो शायद जज़ विनीता सहाय ने उस पर ध्यान भी न दिया होता।
दिन भर में न-जाने कितने केस निपटाने होतें हैं। ढेरों जजों, अपराधियों, गवाहों और वकीलों के भीड़ में उनका समय कटता था। पर ऐसा दयनीय कातिल नहीं देखा था। कातिलों की आखों मे दिखनेवाला गिल्ट या आक्रोश कुछ भी तो नज़र नहीं आ रहा था। विनीता सहाय अतीत को टटोलने लगी। आखिर कौन है यह? कुछ याद नहीं आ रहा था।
विनीता सहाय शहर की जानी-मानी सम्माननीय हस्ती थीं।गोरा रंग, छोटी पर सुडौल नासिका, ऊँचा कद, बड़ी-बड़ी आखेँ और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व वाली विनीता सहाय अपने सही और निर्भीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं। उम्र के साथ सफ़ेद होते बालों ने उन्हें और प्रभावशाली बना दिया था। उनकी बुद्धिदीप्त,चमकदार आँखें एक नज़र में हीं अपराधी को पहचान लेती थीं। उन्हे सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज़ होने का भी गौरव प्राप्त था। उनके न्याय-प्रिय फैसलों की चर्चा होती रहती थी।
पुरुषों के एकछत्र कोर्ट में अपना करियर बनाने में उन्हें बहुत तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा था। सबसे पहला युद्ध तो उन्हें अपने परिवार से लड़ना पड़ा था। वकालत करने की बात सुनकर घर मेँ तो जैसे भूचाल आ गया। माँ और बाबूजी से नाराजगी की तो उम्मीद थी, पर उन्हें अपने बड़े भाई की नाराजगी अजीब लगी। उन्हें पूरी आशा थी कि महिलाओं के हितों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले भैया तो उनका साथ जरूर देंगे। पर उन्हों ने ही सबसे ज्यादा हँगामा मचाया था।
तब विनी को सबसे हैरानी हुई, जब उम्र से लड़ती बूढ़ी दादी ने उसका साथ दिया। दादी उसे बड़े लाड़ से ‘नन्ही परी’ बुलाती थी। विनी रात मेँ दादी के पास ही सोती थी। अक्सर दादी कहानियां सुनाती थी। उस रात दादी ने कहानी तो नहीं सुनाई परगुरु मंत्र जरूर दिया। दादी ने रात के अंधेरे मे विनी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- मेरी नन्ही परी, तु शिवाजी की तरह गरम भोजन बीच थाल से खाने की कोशिश कर रही है। जब भोजन बहुत गरम हो तो किनारे से फूँक-फूँक कर खाना चाहिए।
तु सभी को पहले अपनी एल. एल. बी. की पढाई के लिए राजी कर। न कि अपनी वकालत के लिए। ईश्वर ने चाहा तो तेरी कामना जरूर पूरी होगी। विनी ने लाड़ से दादी के गले मे बाँहे डाल दी। फिर उसने दादी से पूछा- दादी तुम इतना मॉडर्न कैसे हो गई? दादी रोज़ सोते समय अपने नकली दाँतो को पानी के कटोरे में रख देती थी। तब उनके गाल बिलकुल पिचक जाते थे और चेहरा झुरियों से भर जाता था।
विनी ने देखा दादी की झुरियों भरे चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभर आईं और वे बोल पडी-बिटिया, औरतों के साथ बड़ा अन्याय होता है। तु उनके साथ न्याय करेगी, यह मुझे पता है। जज बन कर तेरे हाथों मेँ परियों वाली जादू की छड़ी भी तो आ जाएगी न। अपनी अनपढ़ दादी की ज्ञान भरी बाते सुन कर विनी हैरान थी। दादी के दिये गुरु मंत्र पर अमल करते हुए विनी ने वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली। तब उसे लगा – अब तो मंज़िल करीब है।
पर तभी न जाने कहा से एक नई मुसीबत सामने आ गई। बाबूजी के पुराने मित्र शरण काका ने आ कर खबर दी। उनके किसी रिश्तेदार का पुत्र शहर मे ऊँचे पद पर तबादला हो कर आया है। क्वाटर मिलने तक उनके पास ही रह रहा है। होनहार लड़का है। परिवार भी अच्छा है। विनी के विवाह के लिए बड़ा उपयुक्त वर है। उसने विनी को शरण काका के घर आते-जाते देखा है। बातों से लगता है कि विनी उसे पसंद है। उसके माता-पिता भी कुछ दिनों के लिए आनेवाले है।
शरण काका रोज़ सुबह, एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ मे धोती थाम कर टहलने निकलते थे। अक्सर टहलना पूरा कर उसके घर आ जाते थे। सुबह की चाय के समय उनका आना विनी को हमेशा बड़ा अच्छा लगता था। वे दुनियाँ भर की कहानियाँ सुनाते। बहुत सी समझदारी की बातें समझाते।
पर आज़ विनी को उनका आना अखर गया। पढ़ाई पूरी हुई नहीं कि शादी की बात छेड़ दी। विनी की आँखें भर आईं। तभी शरण काका ने उसे पुकारा- ‘बिटिया, मेरे साथ मेरे घर तक चल। जरा यह तिलकुट का पैकेट घर तक पहुचा दे। हाथों मेँ बड़ा दर्द रहता है। तेरी माँ का दिया यह पैकेट उठाना भी भारी लग रहाहै।
बरसों पहले, भाईदूज के दिन माँ को उदास देख कर उन्हों ने बाबूजी से पूछा था। भाई न होने का गम माँ को ही नही, बल्कि नाना-नानी को भी था। विनी अक्सर सोचती थी कि क्या एक बेटा होना इतना ज़रूरी है? उस भाईदूज से ही शरण काका ने माँ को मुहबोली बहन बना लिया था। माँ भी बहन के रिश्ते को निभाती, हर तीज त्योहार मे उन्हें कुछ न कुछ भेजती रहती थी।आज का तिलकुट मकर संक्रांति का एडवांस उपहार था। अक्सर काका कहते- विनी की शादी में मामा का नेग तो मुझे ही निभाना है।
शरण काका और काकी अपनी इकलौती बेटी, मिनी दीदी की शादी के बाद जब भी अकेलापन महसूस करते , तब उसे बुला लेते थें। अक्सर वे अम्मा बाबूजी से कहते- “मिनी और विनी दोनों मेरी बेटियां हैं। देखो दोनों का नाम भी कितने मिलते-जुलते हैं। जैसे सगी बहनों के नाम हो।” शरण काका भी अजीब है। लोग बेटी के नाम से घबराते हैं और काका का दिल ऐसा है, दूसरे की बेटी को भी अपना मानते हैं।
मिनी दीदी के शादी के समय विनी अपने परीक्षा मे व्यस्त थी। काकी उसके परीक्षा विभाग को रोज़ कोसती रहती। दीदी के हल्दी के एक दिन पहले तक परीक्षा थी। काकी कहती रहती थी- विनी को फुर्सत होता तो मेरा सारा काम संभाल लेती। ये कालेज वालों परीक्षा ले-ले कर लड़की की जान ले लेंगे। शांत और मृदुभाषी विनी उनकी लाड़ली थी। वे हमेशा कहती रहती- ईश्वर ने विनी बिटिया को सूरत और सीरत दोनों दिया है।
आखरी पेपर दे कर विनी जल्दी-जल्दी मिनी दीदी के पास जा पहुचीं। उसे देखते, काकी की तो जैसे जान में जान आ गई। दीदी के सभी कामों की ज़िम्मेवारी उसे सौप कर काकी को बड़ी राहत महसूस हो रही थी। उन्होंने विनी के घर फोन कर ऐलान कर दिया कि विनी अब मिनी के विदाई के बाद ही घर वापस जाएगी।
शाम में विनी,मिनी दीदी के साथ बैठ कर उनका बक्सा ठीक कर रही थी, तब उसे ध्यान आया कि दीदी ने कॉस्मेटिक्स तो ख़रीदा ही नहीं है। मेहँदी की भी व्यवस्था नहीं है। वह काकी से बता कर भागी भागी बाज़ार से सारी ख़रीदारी कर लाई। विनी ने रात मे देर तक बैठ कर दीदी को मेहँदी लगाई। मेहँदी लगा कर जब हाथ धोने उठी तो उसे अपनी चप्पलें मिली ही नहीं। शायद किसी और ने पहन लिया होगा।
शादी के घर मे तो यह सब होता ही रहता है। घर मेहमानों से भरा था। बरामदे में उसे किसी की चप्पल नज़र आई। वह उसे ही पहन कर बाथरूम की ओर बढ़ गई। रात में वह दीदी के बगल में रज़ाई मे दुबक गई। न जाने कब बातें करते-करते उसे नींद आ गई।
सुबह, जब वह गहरी नींद में थी। किसी उसकी चोटी खींच कर झकझोर दिया। कोई तेज़ आवाज़ मे बोल रहा था- अच्छा, मिनी दीदी, तुम ने मेरी चप्पलें गायब की थी। हैरान विनी ने चेहरे पर से रज़ाई हटा कर अपरिचित चेहरे को देखा। उसकी आँखें अभी भी नींद से भरी थीं।
तभी मिनी दीदी खिलखिलाती हुई पीछे से आ गई। अतुल, यह विनी है। सहाय काका की बेटी और विनी यह अतुल है। मेरे छोटे चाचा का बेटा। हर समय हवा के घोड़े पर सवार रहता है। छोटे चाचा की तबीयत ठीक नहीं है। इसलिए छोटे चाचा और चाची नहीं आ सके, तब उन्हों ने अतुल को भेज दिया। अतुल उसे निहारता रहा, फिर झेंपता हुआ बोला- “मुझे लगा, दीदी, तुम सो रही हो। दरअसल, मैं रात से ही अपनी चप्पलें खोज रहा था।”
विनी का को बड़ा गुस्सा आया। उसने दीदी से कहा- मेरी भी तो चप्पलें खो गई हैं। उस समय मुझे जो चप्पल नज़र आई मैं ने पहन लिया। मैंने इनकी चप्पलें पहनी है, किसी का खून तो नहीं किया । सुबह-सुबह नींद खराब कर दी। इतने ज़ोरों से झकझोरा है। सारी पीठ दर्द हो रही है। गुस्से मेँ वह मुँह तक रज़ाई खींच कर सो गई। अतुल हैरानी से देखता रह गया। फिर धीरे से दीदी से कहा- बाप रे, यह तो वकीलों की तरह जिरह करती है।
काकी एक बड़ा सा पैकेट ले कर विनी के पास पहुचीं और पूछने लगी – बिटिया देख मेरी साड़ी कैसी है? पीली चुनरी साड़ी पर लाल बॉङर बड़ी खूबसूरत लग रही थी। विनी हुलस कर बोल पड़ी- बड़ी सुंदर साड़ी है। पर काकी इसमे फॉल तो लगा ही नहीं है। हद करती हो काकी। सारी तैयारी कर ली हो और तुम्हारी ही साड़ी तैयार नहीं है। दो मै जल्दी से फॉल लगा देती हूँ।
विनी दीदी के पलंग पर बैठ कर फॉल लगाने मे मसगुल हो गई। काकी भी पलंग पर पैरों को ऊपर कर बैठ गई और अपने हाथों से अपने पैरों को दबाने लगी। विनी ने पूछा- काकी तुम्हारे पैर दबा दूँ क्या? वे बोलीं – बिटिया, एक साथ तू कितने काम करेगी? देख ना पूरे काम पड़े है और अभी से मैं थक गई हूँ। साँवली -सलोनी काकी के पैर उनकी गोल-मटोल काया को संभालते हुए थक जाए, यह स्वाभाविक ही है। छोटे कद की काकी के लालट पर बड़ी सी गोल लाल बिंदी विनी को बड़ी प्यारी लगती थी। विनी को काकी भी उसी बिंदी जैसी गोल-मटोल लगती थीं।
तभी मिनी दीदी की चुनरी मे गोटा और किरण लगा कर छोटी बुआ आ पहुचीं। देखो भाभी, बड़ी सुंदर बनी है चुनरी। फैला कर देखो ना- छोटी बुआ कहने लगी। पूरे पलंग पर सामान बिखरा था। काकी ने विनी की ओर इशारा करते हुई कहा- इसके ऊपर ही डाल कर दिखाओ छोटी मईयां।
सिर झुकाये फॉल लगाती विनी के ऊपर लाल चुनरी बुआ ने फैला दिया। चुनरी सचमुच बड़ी सुंदर बनी थी। काकी बोल पड़ी- देख तो विनी पर कितना खिल रहा है यह रंग। विनी की नज़रें अपने-आप ही सामने रखे ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दिख रहे अपने चेहरे पर पड़ी। उसका चेहरा गुलाबी पड़ गया। उसे अपना ही चेहरा बड़ा सलोना लगा।
तभी अचानक किसी ने उसके पीठ पर मुक्के जड़ दिये- “ तुम अभी से दुल्हन बन कर बैठ गई हो दीदी” अतुल की आवाज़ आई। वह सामने आ कर खड़ा हो गया। अपलक कुछ पल उसे देखता रह गया। विनी की आँखों मेँ आंसू आ गए थे। अचानक हुए मुक्केबाज़ी के हमले से सुई उसकी उंगली मे चुभ गई थी। उंगली के पोर पर खून की बूँद छलक आई थी।
अतुल बुरी तरह हड्बड़ा गया। बड़ी अम्मा, मैं पहचान नहीं पाया था। मुझे क्या मालूम था कि दीदी के बदले किसी और को दुल्हन बनने की जल्दी है। पर मुझ से गलती हो गई- वह काकी से बोल पड़ा। फिर विनी की ओर देख कर ना जाने कितनी बार सॉरी-सॉरी बोलता चला गया। तब तक मिनी दीदी भी आ गई थी।
विनी की आँखों मेँ आँसू देख कर सारा माजरा समझ कर, उसे बहलाते हुए बोली- “अतुल, तुम्हें इस बार सज़ा दी जाएगी।“ बता विनी इसे क्या सज़ा दी जाए? विनी ने पूछा- इनकी नज़रें कमजोर है क्या? अब इनसे कहो सभी के पैर दबाये। यह कह कर विनी साड़ी समेट कर, पैर पटकती हुई काकी के कमरे मे जा कर फॉल लगाने लगी।
अतुल सचमुच काकी के पैर दबाने लगा, और बोला- वाह! क्या बढ़िया फैसला है जज़ साहिबा का। बड़ी अम्मा, देखो मैं हुक्म का पालन कर रहा हूँ। “तू भी हर समय उसे क्यों परेशान करता रहता है अतुल?”-मिनी दीदी की आवाज़ विनी को सुनाई दी। दीदी, इस बार भी मेरी गलती नहीं थी- अतुल सफाई दे रहा था।
फॉल का काम पूरा कर विनी हल्दी के रस्म की तैयारी मेँ लगी थी। बड़े से थाल में हल्दी मंडप मे रख रही थी। तभी मिनी दीदी ने उसे आवाज़ दी। विनी उनके कमरे मे पहुचीं। दीदी के हाथों मे बड़े सुंदर झुमके थे। दीदी ने झुमके दिखाते हुए पूछा- ये कैसे है विनी? मैं तेरे लिए लाई हूँ। आज पहन लेना। मैं ये सब नही पहनती दीदी- विनी झल्ला उठी। सभी को मालूम है कि विनी को गहनों से बिलकुल लगाव नहीं है। फिर दीदी क्यों परेशान कर रही है? पर दीदी और काकी तो पीछे ही पड़ गई।
दीदी ने जबर्दस्ती उसके हाथों मेँ झुमके पकड़ा दिये। गुस्से मे विनी ने झुमके ड्रेसिंग टेबल पर पटक दिये। फिसलता हुआ झुमका फर्श पर गिरा और दरवाज़े तक चला गया।तुनकते हुए विनी तेज़ी से पलट कर बाहर जाने लगी। उसने ध्यान ही नहीं दिया था कि दरवाजे पर खड़ा अतुल ये सारी बातें सुन रहा था। तेज़ी से बाहर निकालने की कोशिश मे वह सीधे अतुल से जा टकराई। उसके दोनों हाथों में लगी हल्दी के छाप अतुल के सफ़ेद टी-शर्ट पर उभर आए।
वह हल्दी के दाग को हथेलियों से साफ करने की कोशिश करने लगी। पर हल्दी के दाग और भी फैलने लगे। अतुल ने उसकी दोनों कलाइयां पकड़ ली और बोल पड़ा- यह हल्दी का रंग जाने वाला नहीं है। ऐसे तो यह और फ़ैल जाएगा। आप रहने दीजिये। विनी झेंपती हुई हाथ धोने चली गई।
बड़े धूम-धाम से दीदी की शादी हो गई। दीदी की विदाई होते ही विनी को अम्मा के साथ दिल्ली जाना पड़ा। कुछ दिनों से अम्मा की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। डाक्टरों ने जल्दी से जल्दी दिल्ली ले जा कर हार्ट चेक-अप का सुझाव दिया था। मिनी दीदी के शादी के ठीक बाद दिल्ली जाने का प्लान बना था। दीदी की विदाई वाली शाम का टिकट मिल पाया था।
***
एक शाम अचानक शरण काका ने आ कर खबर दिया। विनी को देखने लड़केवाले अभी कुछ देर मे आना चाहते हैं। घर मे जैसे उत्साह की लहर दौड़ गई। पर विनी बड़ी परेशान थी। ना-जाने किसके गले बांध दिया जाएगा?
उसके भविष्य के सारे अरमान धरे के धरे रह जाएगे। अम्मा उसे तैयार होने कह कर किचेन मे चली गईं। तभी मालूम हुआ कि लड़का और उसके परिवारवाले आ गए है। बाबूजी, काका और काकी उन सब के साथ ड्राइंग रूम मेँ बातें कर रहे थे। अम्मा उसे तैयार न होते देख कर, आईने के सामने बैठा कर उसके बाल संवारे। अपने अलमारी से झुमके निकाल कर दिये। विनी झुंझलाई बैठी रही।
अम्मा ने जबर्दस्ती उसके हाथों मे झुमके पकड़ा दिये। गुस्से मे विनी ने झुमके पटक दिये। एक झुमका फिसलता हुआ ड्राइंग रूम के दरवाजे तक चला गया। ड्राइंग-रूम उसके कमरे से लगा हुआ था।
परेशान अम्मा उसे वैसे ही अपने साथ ले कर बाहर आ गईं। विनी अम्मा के साथ नज़रे नीची किए हुए ड्राइंग-रूम मेँ जा पहुची। वह सोंच मे डूबी थी कि कैसे इस शादी को टाला जाए। काकी ने उसे एक सोफ़े पर बैठा दिया। तभी बगल से किसी की ने धीरे से पूछा- आज किसका गुस्सा झुमके पर उतार रही थी? आश्चर्यचकित नज़रों से विनी ने ऊपर देखा। उसने फिर कहा- मैं ने कहा था न, हल्दी का रंग जाने वाला नहीं है। सामने अतुल बैठा था।
अतुल और उसके माता-पिता के जाने के बाद काका ने उसे बुलाया। बड़े बेमन से कुछ सोंचती हुई वह काका के साथ चलने लगी। गेट से बाहर निकलते ही काका ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- “विनी, मैं तेरी उदासी समझ रहा हूँ। बिटिया, अतुल बहुत समझदार लड़का है। मैंने अतुल को तेरे सपने के बारे मेँ बता दिया है। तू किसी तरह की चिंता मत कर। मुझ पर भरोसा कर बेटा।
काका ने ठीक कहा था। वह आज़ जहाँ पंहुची है। वह सिर्फ अतुल के सहयोग से ही संभव हो पाया था। अतुल आज़ भी अक्सर मज़ाक मेँ कहते हैं –“मैं तो पहली भेंट मेँ ही जज़ साहिबा की योग्यता पहचान गया था।“ उसकी शादी मेँ सचमुच शरण काका ने मामा होने का दायित्व पूरे ईमानदारी से निभाया था। पर वह उन्हें मामा नहीं, काका ही बुलाती थी। बचपन की आदत वह बदल नहीं पाई थी।
***
कोर्ट का कोलाहल विनीता सहाय को अतीत से बाहर खींच लाया। पर वे अभी भी सोच रही थीं – इसे कहाँ देखा है। दोनों पक्षों के वकीलों की बहस समाप्त हो चुकी थी। राम नरेश के गुनाह साबित हो चुके थे। वह एक भयानक कातिल था। उसने इकरारे जुर्म भी कर लिया था।
उसने बड़ी बेरहमी से हत्या की थी। एक सोची समझी साजिश के तहत उसने अपने दामाद की हत्या कर शव का चेहरा बुरी तरह कुचल दिया था और शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर जंगल मे फेंक दिया था। वकील ने बताया कि राम नरेश का अपराधिक इतिहास है। वह एक क्रूर कातिल है।
पहले भी वह कत्ल का दोषी पाया गया था। पर सबूतों के आभाव मे छूट गया था। इसलिए इस बार उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए। वकील ने पुराने केस की फाइल उनकी ओर बढ़ाई। फ़ाइल खोलते ही उनके नज़रों के सामने सब कुछ साफ हो गया। सारी बातें चलचित्र की तरह आँखों के सामने घूमने लगी।
लगभग बाईस वर्ष पहले राम नरेश को कोर्ट लाया गया था। उसने अपनी दूध मुहीं बेटी की हत्या कर दी थी। तब विनीता सहाय वकील हुआ करती थी। ‘कन्या-भ्रूण-हत्या’ और ‘बालिका-हत्या’ जैसे मामले उन्हें आक्रोश से भर देते थे। माता-पिता और समाज द्वारा बेटे-बेटियों में किए जा रहे भेद-भाव उन्हें असह्य लगते थे।
तब विनीता सहाय ने रामनरेश के जुर्म को साबित करने के लिए एड़ी चोटी की ज़ोर लगा दी थी। उस गाँव मेँ अक्सर बेटियों को जन्म लेते ही मार डाला जाता था। इसलिए किसी ने राम नरेश के खिलाफ गवाही नहीं दी। लंबे समय तक केस चलने के बाद भी जुर्म साबित नहीं हुआ।
इस लिए कोर्ट ने राम नरेश को बरी कर दिया था। आज वही मुजरिम दूसरे खून के आरोप में लाया गया था। विनीता सहाय ने मन ही मन सोचा- ‘काश, तभी इसे सज़ा मिली होती। इतना सीधा- सरल दिखने वाला व्यक्ति दो-दो कत्ल कर सकता है? इस बार वे उसे कड़ी सज़ा देंगी।
जज साहिबा ने राम नरेश से पूछा- ‘क्या तुम्हें अपनी सफाई मे कुछ कहना है?’ राम नरेश के चेहरे पर व्यंग भरी मुस्कान खेलने लगी। कुछ पल चुप रहने के बाद उसने कहा – “हाँ हुज़ूर, मुझे आप से बहुत कुछ कहना है। मैं आप लोगों जैसा पढ़ा- लिखा और समझदार तो नहीं हूँ। पता नहीं आपलोग मेरी बात समझेगें या नहीं। पर आप मुझे यह बताइये कि अगर कोई मेरी परी बिटिया को जला कर मार डाले और कानून से भी अपने को बचा ले। तब क्या उसे मार डालना अपराध है?”
मेरी बेटी को उसके पति ने दहेज के लिए जला दिया था। मरने से पहले मेरी बेटी ने अपना आखरी बयान दिया था, कि कैसे मेरी फूल जैसी सुंदर बेटी को उसके पति ने जला दिया। पर वह पुलिस और कानून से बच निकला। इस लिए उसे मैंने अपने हाथों से सज़ा दिया। मेरे जैसा कमजोर पिता और कर ही क्या सकता है? मुझे अपने किए गुनाह का कोई अफसोस नहीं है।
उसका चेहरा मासूम लग रहा था। उसकी बूढ़ी आँखों मेँ आँसू चमक रहे थे, पर चेहरे पर संतोष झलक रहा था। वह जज साहिबा की ओर मुखातिब हुआ-“ हुज़ूर, क्या आपको याद है? आज़ से बाईस वर्ष पहले जब मैं ने अपनी बड़ी बेटी को जन्म लेते मार डाला था, तब आप मुझे सज़ा दिलवाना चाहती थीं।
आपने तब मुझे बहुत भला-बुरा कहा था। आपने कहा था- बेटियां अनमोल होती हैं। उसे मार कर मैंने जघन्य पाप किया है।“ आप की बातों ने मेरी रातों की नींद और दिन का चैन ख़त्म कर दिया था। इसलिए जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ तब मुझे लगा कि ईश्वर ने मुझे भूल सुधारने के मौका दिया है। मैंने प्रयश्चित करना चाहा। उसका नाम मैंने परी रखा। बड़े जतन और लाड़ से मैंने उसे पाला।
अपनी हैसियत के अनुसार उसे पढ़ाया और लिखाया। वह मेरी जान थी। मैंने निश्चय किया कि उसे दुनिया की हर खुशी दूंगा। मै हर दिन मन ही मन आपको आशीष देता कि आपने मुझे ‘पुत्री-सुख’ से वंचित होने से बचा लिया। मेरी परी बड़ी प्यारी, सुंदर, होनहार और समझदार थी। मैंने उसकी शादी बड़े अरमानों से किया। अपनी सारी जमा-पूंजी लगा दी।
मित्रों और रिश्तेदारों से उधार लिया। किसी तरह की कमी नहीं की। पर दुनिया ने उसके साथ वही किया जो मैंने बाईस साल पहले अपनी बड़ी बेटी के साथ किया था। उसे मार डाला। तब सिर्फ मैं दोषी क्यों हूँ? मुझे खुशी है कि मेरी बड़ी बेटी को इस क्रूर दुनिया के दुखों और भेद-भाव को सहना नहीं पड़ा। जबकि छोटी बेटी को समाज ने हर वह दुख दिया जो एक कमजोर पिता की पुत्री को झेलना पड़ता है। ऐसे मेँ सज़ा किसे मिलनी चाहिए? मुझे सज़ा मिलनी चाहिए या इस समाज को?
अब आप बताइये कि बेटियों को पाल पोस कर बड़ा करने से क्या फायदा है? पल-पल तिल-तिल कर मरने से अच्छा नहीं है कि वे जन्म लेते ही इस दुनिया को छोड़ दे। कम से कम वे जिंदगी की तमाम तकलीफ़ों को झेलने से तों बच जाएगीं। मेरे जैसे कमजोर पिता की बेटियों का भविष्य ऐसा ही होता है।
उन्हे जिंदगी के हर कदम पर दुख-दर्द झेलने पड़ते है। काश मैंने अपनी छोटी बेटी को भी जन्म लेते मार दिया होता। आप मुझे बताइये, क्या कहीं ऐसी दुनिया हैं जहाँ जन्म लेने वाली ये नन्ही परियां बिना भेद-भाव के एक सुखद जीवन जी सकें? आप मुझे दोषी मानती हैं। पर मैं इस समाज को दोषी मानता हूँ। क्या कोई अपने बच्चे को इसलिए पालता है कि यह नतीजा देखने को मिले? या समाज हमेँ कमजोर होने की सज़ा दे रहा है? क्या सही है और क्या गलत, आप मुझे बताइये।
विनीता सहाय अवाक थी। मुक नज़रों से राम नरेश के लाचार –कमजोर चेहरे को देख रही थीं। उनके पास कोई जवाब नहीं था। पूरे कोर्ट मे सन्नाटा छा गया था। आज एक नया नज़रिया उनके सामने था? उन्होंने उसके फांसी की सज़ा को माफ करने की दया याचिका प्रेसिडेंट को भिजवा दिया।
अगले दिन अखबार मे विनीता सहाय के इस्तिफ़े की खबर छपी थी। उन्होंने वक्तव्य दिया था – इस असमान सामाजिक व्यवस्था को सुधारने की जरूरत है। जिससे समाज लड़कियों को समान अधिकार मिले। अन्यथा न्याय, अन्याय बन जाता है, क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गलत सामाजिक व्यवस्था और करप्शन न्याय को गुमराह करता है और लोगों का न्यायपालिका पर से भरोसा ख़त्म करता है। मैं इस गलत सामाजिक व्यवस्था के विरोध मेँ न्यायधिश पद से इस्तीफा देती हूँ।
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नागवेणी
मेरी एक पुरानी रहस्यमय कहानी.
डूबते सूरज की लाल किरणो से निकलती आभा चारो ओर बिखरी थी. सामने, ताल का रंग लाल हो गया था. मैं अपनी मोबाईल से तस्वीर लेने लगी. डूबते सूर्य किरणों के साथ सेल्फी लेने की असफल कोशिश कर रही थी. पर तस्वीर ठीक से नहीं आ रही थी. तभी पीछे से आवाज़ आई – ” क्या मैं आपकी मदद कर सकती हूँ ? “चौक कर पलटी तो सामने एक खुबसूरत , कनक छडी सी, आयत नयनो वाली श्यामल युवती खड़ी थी.
मैंने हैरानी से अपरिचिता को देखा और पूछा – “आप को यहाँ पहले नहीं देखा. कहाँ से आई है? और मोबाईल उसकी ओर बढ़ा दिया . उसने तस्वीरें खींचते हुये कहा – कहते हैं , डूबते सूरज के साथ तस्वीरें नही लेनी चाहिये. मैं भी अस्ताचल सूर्य के साथ अपनी तस्वीर लिया करती थी. फ़िर गहरी नज़रों से उसने मुझे देखते हुये मेरे मन की बात कही – बडे कलात्मक लगते है न ऐसे फोटो? मैंने हामी में सिर हिलाया.
फ़िर मुस्कुराते हुए दूर गुजरती हुए राजमार्ग की ओर इशारा करते हुए कहा -” मैं वहाँ रहती हूँ. मैं तो आपको रोज़ देखती हूँ. आप सुबह मेरे आगे ही तो योग अभ्यास करती है. मेरा नाम नागवेणी है , पर यह नाम आप पर ज्यादा जंचेगा . आपकी नाग सी लम्बी , मोटी , बल खाती चोटी मुझे बड़ी आकर्षक लगती है. अब उसकी बातों का सिलसिला ख़त्म ही नहीं हो रहा था. मान ना मान मैं तेरी मेहमान वाली उसकी अदा से मैं बेजार होने लगी थी. योग निद्रा कक्षा में जाने का समय होते देख मैंने उस से विदा लिया.
अगली शाम मैं हरेभरे वृक्षों के बीच बनी राह से गुजरते हुये अपने पसंदीदा स्थल पर पहुँची. पानी के झरने की मधुर कलकल और अस्तगामी सूर्य के लाल गोले के सम्मोहन में डूबी थी. तभी , मधुर खनकती आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग कर दिया. नागवेणी बिल्ली की तरह दबे पैर , ना जाने कब मेरे बगल में आकर खड़ी हो गई थी.
उसकी लच्छेदार गप्पों का सिलसिला फ़िर से शुरू हो गया. अचानक उसने पूछा -आप यहाँ कब से आई हुई हैं ?”आप चित्रकारी भी करती हैं ना ? आपकी लम्बी , पतली अंगुलियों को देख कर ही मैं समझ गई थी कि यह किसी कलाकार की कलात्मक अंगुलियाँ हैं . डूबते सूर्य की पेंटिंग बनाईये ना”. उसने मेरे बचपन के शौक चित्रकारी की बात छेड़ कर गप्प में मुझे शामिल कर लिया . मैंने कहा -” हाँ , चित्रकारी कभी मेरा प्रिय शगल था. अब तो यह शौक छूट गया है.
उसकी बात का जवाब देते हुये मैंने मुस्कुराते हुये कहा -“तीन दिनों पहले इस नेचर क्योर इन्स्टिट्यूट में आई हूँ अभी एक सप्ताह और रहना है. यहाँ चित्रकारी का सामान ले कर नहीँ आई हूँ “.मेरी मुस्कुराहट के जवाब में मुस्कुराते हुये उस ने अपने पीठ की ओर मुडे दाहिने हाथ को सामने कर दिया. मैंने अचरज से देखा. उसने लम्बी ,पतली, नाजुक उँगलियों में चित्रकारी के सामान थाम रखे थे. मैंने झिझकते हुये कहा – ” मैं तुम्हारा सामान नहीं ले सकती”.
“हद करती हैं आप , मुझसे दोस्ती तो कर ली , अब इस मामूली से सामान से इनकार क्यों कर रही हैं? देखिये , मेरे दाहिने हाथ में चोट लगी हैं. इसलिये मैं भी चित्र नहीं बना पा रहीं हूँ”. दूर गुजरते नेशनल हाईवे की ओर इशारा करती हुये बोली – “एक महीने पहले , 14 जनवरी को ठीक वहीं , सड़क पार करते समय दुर्घटना में मुझे चोट लग गई थी. अभी आप ही इसे काम में लाइये.
मैंने उसे समझाने की कोशिश की – ” देखो नागवेणी, ना जाने क्यों , अब पहले के तरह चित्र बना ही नहीँ पाती हूँ. एक -दो बार मैंने कुछ बनाने की कोशिश भी की थी. पर आड़ी -तिरछी लकीरों में उलझ कर रह गई .”आप शांत मन से चित्र बना कर तो देखिये. फ़िर देखियेगा अपनी कला का जादू. अपने आप ही आप की उँगलियाँ खूबसूरत चित्रकारी करने लगेंगी” नागवेणी ने रहस्यमयी आवाज़ में कहा और बच्चों की तरह खिलखिला कर हँसने लगी. मैं भी उसकी शरारत पर हँसने लगी.
मैंने अपनी और नागवेणी की ढेरों सेल्फी ली और वहीं एक चट्टान पर बैठ कर तस्वीरें उकेरने लगी. तभी किसी ने मेरे पीठ पर हाथ रखा. मुझे लगा नागवेणी हैं. पलट कर देखा. मेरे पड़ोस के कमरे की तेज़ी खड़ी थी. उसने पूछा – “आप अकेले यहाँ क्या कर रहीं हैं ? फ़िर मेरे हाथों मॆं पकड़े चित्रों को देख प्रसंशा कर उठी. सचमुच बड़े सुंदर चित्र बने थे. नागवेणी ने ठीक ही कहा था. शायद यह मेरे शांत मन का ही कमाल था. पर नागवेणी चुपचाप चली क्यों गई ? मैने तेज़ी से पूछा – “तुमने नागवेणी को देखा क्या “? तेज़ी ने बताया कि वह नागवेणी को नहीं पहचानती हैं.
अगले दो दिनों में मैंने ढेरों खुबसूरत चित्र बना लिये थे. यह सचमुच जादू ही तो था. इतने सुंदर और कलात्मक चित्र मैंने आज़ से पहले नहीं बनाये थे. मुझे नागवेणी को चित्र दिखाने की बड़ी चाहत हो रही थी. पर उस से मुलाकात ही नहीं हो रहीं थी. इतनी बडे , इस प्रकृतिक चिकित्सालय में सब इतने व्यस्त होते हैं कि मिलने का समय निकालना मुश्किल हो जाता हैं. मैने बहुतों से नागवेणी के बारे में पूछा पर कोई उसके बारे में बता नहीं पाया. बात भी ठीक हैं, इतने सारे लोगो के भीड़ में सब को पहचानना मुश्किल हैं.
रात मॆं टहलने के समय दूर नागवेणी नज़र आई .मैंने उसे पुकारा. पर वह रुकी नही. मै दौड़ कर उसके पास पहुँची और धाराप्रवाह अपनी खुबसूरत चित्रकारी के बारे में बताने लगी. मैने हँस कर कहा -” तुमने तो जादू कर दिया हैं नागवेणी. दो दिन कहाँ व्यस्त हो गई थी “.नागवेणी ने मेरे बातों का जवाब नही देते हुये कहा – मैं भी बहुत सुंदर चित्र बनाती थी. मैने अपनी कला तुम्हे उपहार में दे दी हैं. तुम मेरे साथ दोस्ती निभाओगी ना ? तुम मुझे बड़ी अच्छी लगती हो.
उसकी बहकी बहकी बातें सुन मैंने नजरे उसके चेहरे पर डाली. उसने उदास नजरो से मुझे देखा और कहा – ” अब तो तुम वापस जाने वाली हो पर मैं तुमसे मिलने आती रहुँगी. पत्तों पर किसी के कदमों की चरमराहट सुन मैंने पीछे देखा. तेजी मुझे आवाज़ दे रही थे. मैने नागवेणी की कलाई थाम कर कहा -“चलो , तुम्हे तेज़ी से परिचय करा दूँ. फरवरी महीने के गुलाबी जाडे में नागवेणी की कोमल कलाई हिम शीतल थी. मैंने घूम कर तेज़ी को आवाज़ दिया. तभी लगा मेरी हथेलियों से कुछ फिसल सा गया.
तेज़ी ने पास आते हुये पूछा – ” इतनी रात में आप अकेले यहाँ क्या कर रही हैं ? मैने पलट कर देखा. नागवेणी का कहीँ पता नहीँ था. मुझे उस पर बड़ी झुंझलाहट होने लगी बड़ी अजीब लड़की हैं. कहाँ चली गई इतनी जल्दी ?
*****
उस दिन मैं लाईब्रेरी मॆं बैठी चित्र बना रही थी. तेजी अपने मोबाईल से तस्वीरें लेने लगी. यहाँ से जाने से पहले सभी एक दूसरे के फोटो और फोन नम्बर लेना चहते थे. तभी टेबल के नीचे रखे पुरानेअख़बार की एक तस्वीर जानी पहचानी लगी . मैंने उसे हाथों मॆं उठाया और मेरी अंगुलियाँ काँप उठी . ठंढ के मौसम मॆं ललाट पर पसीने की बूँदें झलक उठीं. मैंने अख़बार की तिथि पर नज़रें डाली.
लगभग एक महीने पुरानी , जनवरी के अख़बार मॆं एक अनजान युवती के शव को शिनाख्त करने की अपील छपी थी. जिसकी मृत्यु 14 जनवरी को राज़ मार्ग पर किसी वाहन से हुए दुर्घटना से हुई थी. यह तस्वीर नागवेणी की थी. मैंने अपनी पसीने से भरी कांपती हथेलियों से मोबाईल निकाली. अपनी और नागवेणी की तस्वीरों को देखने लगी. पर हर तस्वीर मॆं मैं अकेली थी.
मेरे कानों मॆं नागवेणी की आवाज़ गूँजने लगी –कहते हैं , डूबते सूरज के साथ तस्वीरें नही लेनी चाहिये. मैं भी अस्ताचल सूर्य के साथ अपनी तस्वीर लिया करती थी. मैं भी बहुत सुंदर चित्र बनाती थी. मैने अपनी कला तुम्हे उपहार में दे दी हैं. तुम मेरे साथ दोस्ती निभाओगी ना ? मैं तुमसे मिलने आती रहूँगी.
A short story-An Empty Boat
“⛵Empty boat” is a famous & fabulous metaphor. Its value lies in its implementation.
A monk decides to meditate alone, away from his monastery. He takes his boat out to the middle of the lake, moors it there, closes his eyes and begins his meditation.
After a few hours of undisturbed silence, he suddenly feels the bump of another boat colliding with his own.
With his eyes still closed, he senses his anger rising, and by the time he opens his eyes, he is ready to scream at the boatman who dared disturb his meditation.
But when he opens his eyes, he sees it’s an empty boat that had probably got untethered and floated to the middle of the lake.
At that moment, the monk achieves self-realization, and understands that the anger is within him; it merely needs the bump of an external object to provoke it out of him.
From then on, whenever he comes across someone who irritates him or provokes him to anger,
he reminds himself, “The other person is merely an empty boat. The anger is within me.” Take time for introspection & search for answer:
Forwarded as received.
Krishna and karma theory
When Krishna returned home after the battle of Mahabharata, his wife Rukmani confronted him “How could you be party to the killing of Guru Drona and Bheeshma, who were such righteous people and had a lifetime of righteousness behind them.”
Initially Lord Krishna avoided her questions but when she did not relent, he replied “No doubt they had a lifetime of rightousness behind them but they both had committed one single sin that destroyed all their lifetime of righteousness”
Rukmani asked “And what was that sin?”
Lord Krishna replied “They were both present in the court when a lady (Draupadi) was being disrobed and being elders they had the authority to stop it but they did not. This single crime is enough to destroy all righteousness of this world”
Rukmani asked “But what about Karna?
He was known for his charity. No one went empty handed from his doorstep. Why did you have him killed?”
Lord Krishna said “No doubt Karna was known for his charity. He never said ‘No’ to anyone who asked him for anything. But when Abhimanyu fell after successfully fighting an army of the greatest warriors and he lay dying, he asked for water from Karna who stood nearby. There was a puddle of clean water where Karna stood but not wanting to annoy his friend Duryodhan, Karna did not give water to a dying man. In doing so his charity of a lifetime was destroyed. Later in battle, it was the same puddle of water in which the wheel of his chariot got stuck and he was killed.”
Understand that your one act of injustice can destroy your whole life of honesty.
This story is great example of Karma Theory in Path To Prosperity. So Lets create any Karma with Awareness what is righteous.
Be Blessed Of Divine Light.
Forwarded as received
गाथाएँ : चाँद-तारा का प्रेम प्रतीक ‘बुध’
एक ही साथ नभ में छिटके चाँद और तारा की प्रेम कथा सनातन और सदियों पुरानी हैं. दोनो में प्रेम हो गया . रात में छिटकी चाँद की रौशनी और प्रणय में डूब वृहस्पति की पत्नी तारा अपने प्रिय चंद्रमा के अंक में खो गई. उनके प्रेम चिन्ह के रूप मेंजन्म लिया बुध ने .
वृहस्पति अपनी पत्नी के इस धोखे और इस कटु सत्य से व्यथित हो गए और बुध को नपुंसक – ना नर ना नारी रहने का श्राप दे बैठे .
पारिवारिक जीवन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए देवराज इंद्र ने तारा को चंद्रमा के पास वापस पति वृहस्पति के पास भेजा और उसके संतान का पिता वृहस्पति को माना.
तब से वैदिक नियम में विवाह के द्वारा पितृत्व का निर्धारण का नियम बना. साथ ही बुध को नपुंसक ग्रह माना जाने लगा.
गाथायें – महाभारत रचना
वेदों का संकलन पूर्ण कर ,
वेद व्यास ने वैदिक भारत की
व्यवस्था पर एक महान रचना ,
एक विशद ज्ञान रचना चाहा.
निर्विधन , शुद्ध , सही ,
एक ईश्वरीय काव्य रचना के
लिए बुद्धि दाता गणेश को
अपना सहायक लेखक बनने का
अनुरोध किया और स्वयं बने वक़्ता .
ना जाने कितने समय तक बिना रुके
व्यास अपने ही परिवार –
कौरवों और पांडवों के
विरासत और सिंहासन
पारिवारिक कलह
की कथा कहते रहे .
जिसकी परिणती हुई
कुरुक्षेत्र युद्ध के रूप में.
इसे श्लोकों में रचकर व्यास
गणपति को सुनाते रहे और
गणेश अनवरत लिखते रहे .
असत्य पर सत्य के विजय की कथा ,
विश्व का महान काव्य बना
और यह कहलाया – महाभारत !!!
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