नकाब
People don’t change, Sometimes their mask falls off.
People don’t change, Sometimes their mask falls off.
हमेशा क़रीब होना हीं सही नही।
बहुत क़रीब से देखने पर पूरे दृश्य को नहीं देखा जा सकता है।
वे धुँधली हो जातीं हैं।
परिदृश्य या घटना का हिस्सा बन कर पूरी बातें नहीं समझी जा सकती हैं.
जैसे चित्र में रह कर चित्र देखा नहीं जा सकता.
थोङे फासले भी मायने रखते हैं।
संगेमरमर से पूछो तराशे जाने का दर्द कैसा होता है.
सुंदर द्वार, चौखटों और झरोखों में बदल गई,
साधारण लकड़ी से पूछो काटे जाने और नक़्क़ाशी का दर्द.
सुंदर-खरे गहनों से पूछो तपन क्या है?
चंदन से पूछो पत्थर पर रगड़े-घिसे जाने की कसक,
कुन्दन से पूछो आग की तपिश और जलन कैसी होती है.
हिना से पूछो पिसे जाने का दर्द.
कठोर पत्थरों से बनी, सांचे में ढली मंदिर की मूर्तियां से पूछो चोट क्या है.
तब समझ आएगा,
तप कर, चोट खा कर हीं निखरे हैं ये सब!
हर चोट जीना सिखाती है हमें.
अौर बार-बार ज़िंदगी परखती है हमें।
आज सुबह बॉलकोनी में बैठ कर चिड़ियों की मीठा कलरव सुनाई दिया
आस-पास शोर कोलाहल नहीं.
यह खो जाता था हर दिन हम सब के बनाए शोर में.
आसमान कुछ ज़्यादा नील लगा .
धुआँ-धूल के मटमैलापन से मुक्त .
हवा- फ़िज़ा हल्की और सुहावनी लगी. पेट्रोल-डीज़ल के गंध से आजाद.
दुनिया बड़ी बदली-बदली सहज-सुहावनी, स्वाभाविक लगी.
बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी करने और आगे बढ़ने का बड़ा मोल चुका रहें हैं हम सब,
यह समझ आया.
ज़िंदगी की परेशान घड़ियों में अचानक
किसी की बेहद सरल और सुलझी बातें
गहरी समझ और सुकून दे जातीं हैं, मलहम की तरह।
किसी ने हमसे कहा – किसी से कुछ ना कहो, किसी की ना सुनो !
दिल से निकलने वाली बातें सुनो,
और अपने दिल की करो।
गौर से सुना, पाया……
दिल के धड़कन की संगीत सबसे मधुर अौर सच्ची है।
झुक कर रिश्ते निभाते-निभाते एक बात समझ आई,
कभी रुक कर सामनेवाले की नज़रें में देखना चाहिये।
उसकी सच्चाई भी परखनी चाहिये।
वरना दिल कभी माफ नहीं करेगा
आँखें बंद कर झुकने अौर भरोसा करने के लिये।
लेखन के दौरान कभी-कभी लिखना कठिन हो जाता है। समझ नहीं आता क्या लिखें, कैसे लिखें।
यह तब होता है
जब आपके काल्पनिक दोस्त ,चरित्र या पात्र आपसे बात करना बंद कर देते हैं !!!
इसे हीं लेखक ब्लॉक कहते हैं।
समय के साथ भागते हुए लगा – घङी की टिक- टिक हूँ…
तभी
किसी ने कहा – जरुरी बातों पर फोकस करो,
तब लगा कैमरा हूँ क्या?
मोबाइल…लैपटॉप…टीवी……..क्या हूँ?
सबने कहा – इन छोटी चीजों से अपनी तुलना ना करो।
हम बहुत आगे बढ़ गये हैं
देखो विज्ञान कहा पहुँच गया है………
सब की बातों को सुन, समझ नहीं आया
आगे बढ़ गये हैं , या उलझ गये हैं ?
अहले सुबह, उगते सूरज के साथ देखा
लोग योग-ध्यान में लगे
पीछे छूटे शांती-चैन की खोज में।
लोगों को पढ़ते- पढ़ते
यह समझ आया
कुछ लोग बदलते नहीं हैं
बस
बेपर्द हो जाते हैं……..
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