कसौटी पर स्वर्ण

अक्सर फ़रेब करने वाले,

आज़माते रहते हैं दूसरों को।
भूल जाते हैं, फ़िज़ा में घुली

ख़ुशबुएँ आज़माई नहीं जाती।
गुमान करने वाले परखनते रहते हैं, दूसरों को।

कसौटी पर स्वर्ण ही परखते हैं।
भूल जातें हैं लोहे परखे नहीं जाते।

दूसरों में कमियाँ ढूँढने वाले

धूल आईना की साफ़ करते रहते है,

भूल जातें है ख़ुद के चेहरे साफ़ करना।

4 thoughts on “कसौटी पर स्वर्ण

  1. Outstanding poem, as usual, Rekha ji. ♥️♥️♥️♥️♥️💐💐💐💐. Keep writing and we will keep reading, assimilating the intent of the poem.

    Liked by 1 person

Leave a comment