दर्द हो या ख़ुशियाँ,
सुनाने-बताने के कई होते हैं तरीक़े।
लफ़्ज़ों….शब्दों में बयाँ करते हैं,
जब मिल जाए सुनने वाले।
कभी काग़ज़ों पर बयाँ करते है,
जब ना मिले सुनने वाले।
संगीत में ढाल देते हैं,
जब मिल जाए सुरों को महसूस करने वाले।
वरना दर्द महसूस कर और चेहरे पढ़
समझने वाले रहे कहाँ ज़माने में?










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