आ कर चले जातें है लोग, वहीं जहाँ से आए थे।
पर यहीं कहीं कुछ यादें , कुछ वादे छोड़ जातें हैं।
ग़ायब बस वह एक चेहरा होता है।
जो अक्सर तन्हाईयों को छूता रहता है।
बस रह जाती हैं कुछ कहानियाँ,
सुनने-सुनाने को, आँखें गीली कर जाने को।
साजो-सामान के साथ मेहमान
विदा होतें हैं, यादें क्यों छोड़ जातें हैं?
क्यों यह रस्म-ए-जहाँ बनाई? ऐ ज़िंदगी!
तुम्हारी अपनी,
पैग़ाम-ए-हयात