ग़र कोई मन बना लें, ग़लत ठहराने का।
दावा करना छोड़
बढ़ जाओ मंज़िल की ओर।
कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत
कभी सब ग़लत मानने वाले
ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार सजाते हैं।
फ़ासले बढ़ाते है।
ख़ुद वे ग़लत हो सकते हैं,
यह कभी मान नहीं पाते हैं।
ग़र कोई मन बना लें, ग़लत ठहराने का।
दावा करना छोड़
बढ़ जाओ मंज़िल की ओर।
कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत
कभी सब ग़लत मानने वाले
ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार सजाते हैं।
फ़ासले बढ़ाते है।
ख़ुद वे ग़लत हो सकते हैं,
यह कभी मान नहीं पाते हैं।