बेख़ुदी में

क़बूल भी नहीं कर सकते और इनकार भी नहीं कर सकते……

सचमुच देखा था तुम्हें क़रीब अपने.

हाथ भी बढ़ाया छूने के लिए.

तभी नींद खुल गईं और देखा बाहें शून्य में फैलीं हैं.

शायद सपने में घड़ी की सुईयों को पीछे घुमाते चले गए थे.

शायद बेख़ुदी में तुमको पुकारे चले गए थे.

 

Image- Aneesh

गिनती बन कर रह गए!

श्रम के सैनिक निकल पड़े पैदल, बिना भय के बस एक आस के सहारे – घर पहुँचने के सपने के साथ. ना भोजन, ना पानी, सर पर चिलचिलाती धूप और रात में खुला आसमान और नभ से निहारता चाँद. पर उन अनाम मज़दूरों का क्या जो किसी दुर्घटना के शिकार हो गए. ट्रेन की पटरी पर, रास्ते की गाड़ियों के नीचे? या थकान ने जिनकी साँसें छीन लीं. जो कभी घर नहीं पहुँचें. बस समाचारों में गिनती बन कर रह गए.

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