ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार

ग़र कोई मन बना लें, ग़लत ठहराने का।

दावा करना छोड़

बढ़ जाओ मंज़िल की ओर।

कभी ये ग़लत कभी वो ग़लत

कभी सब ग़लत मानने वाले

ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार सजाते हैं।

फ़ासले बढ़ाते है।

ख़ुद वे ग़लत हो सकते हैं,

यह कभी मान नहीं पाते हैं।

6 thoughts on “ग़लत-फ़हमियों के बाज़ार

  1. Very beautiful lines. सच कहा आपने| जिंदगी झंडवा फिर भी घमंड वा| ( Heard this from Kapil Sharma show) Ego prevents people from accepting their mistakes. You beautifully present the harsh realities of life through your poems. Keep writing, Rekhaji. 🥰🥰☺☺☺☺

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    1. बहुत शुक्रिया। बिलकुल सही लिखा आपने, यह कहावत अक्सर कही जाती है, कभी-कभी positive sense ( I am proud of myself).
      अक्सर हम सबों की मुलाक़ातें ऐसे लोगों से होती रहती, जिनमें negativity भरी होती है। इन्हीं की चर्चा मैं कविताओं में कर देतीं हूँ। 😊
      वैसे आप कहाँ से हैं/ कहाँ रहतीं हैं?
      मैं बिहार-झारखंड से हूँ, पुणे में रहतीं हूँ।

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  2. ठीक कहा रेखा जी आपने।
    बक़ौल ग़ालिब-
    न सुनो गर बुरा कहे कोई
    न कहो गर बुरा करे कोई
    रोक लो गर ग़लत चले कोई
    बख़्श दो गर ख़ता करे कोई

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    1. वाह! बहुत ख़ूब, ग़ालिब का यह शेर मेरे लिए नया और बेहद सटीक है। शुक्रिया जितेंद्र जी।

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