ज़िंदगी के रंग – 187

ज़िंदगी के खेल ने

एक सबक़ सिखाया.

जहाँ से भी मिले,

बटोर लो ख़ुशियाँ.

क्योंकि ज़िंदगी की गणित

अपने हाथों में नहीं है।

समझदारी से जोड़ते- घटाते

ज़िंदगी औ समय निकल जाता हैं.

और जब ज़िंदगी रंग दिखाती है,

तब हाथ सिफ़र….शून्य..आता हैं.

23 thoughts on “ज़िंदगी के रंग – 187

  1. खुशियाँ बाजार में नही बिकती। जमाने मे खुशियाँ सबको नहीं मिलती।बटोर लो जितना बटोरना है। वक़्त का क्या कल ये भी मौका छीन ले।

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    1. हम अपनी समझदारी से अपनी ज़िंदगी plan करते हैं यह सोंच कर कि सब कुछ हमारे नियंत्रण में हैं. पर दरसल हमारी डोर तो किसी और के हाथों में होती है.

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