ज़िंदगी के खेल ने
एक सबक़ सिखाया.
जहाँ से भी मिले,
बटोर लो ख़ुशियाँ.
क्योंकि ज़िंदगी की गणित
अपने हाथों में नहीं है।
समझदारी से जोड़ते- घटाते
ज़िंदगी औ समय निकल जाता हैं.
और जब ज़िंदगी रंग दिखाती है,
तब हाथ सिफ़र….शून्य..आता हैं.
ज़िंदगी के खेल ने
एक सबक़ सिखाया.
जहाँ से भी मिले,
बटोर लो ख़ुशियाँ.
क्योंकि ज़िंदगी की गणित
अपने हाथों में नहीं है।
समझदारी से जोड़ते- घटाते
ज़िंदगी औ समय निकल जाता हैं.
और जब ज़िंदगी रंग दिखाती है,
तब हाथ सिफ़र….शून्य..आता हैं.
रात बीत जाती है,
सहर…सवेरा भी होता है.
सूरज भी निकलता है,
पर मन में अँधेरा हीं होता है .
तभी छोटे से जलते चिराग़
का हौसला देखा.
जो रोशन जहांन को कर
अब सोने की तैयारी कर रहा था.
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