गाँठें

ख़ुद को समेटते समेटते

ना जाने कब दर्दे जिगर

खुल कर बिखर गए.

जितनी बार बांधा

उतनी बार ज़ख़्मों की

गाँठे खुल खुल गई.

शायद चोट को

खुला छोड़ देना हीं मुनासिब है.

खुली बयार और वक़्त

हीं इन्हें समेट ले ….भर दे .

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20 thoughts on “गाँठें

    1. सही है – दर्द भी है, पर ज़िन्दगी ख़ूबसूरत है. पर रफ़ू और गाँठों के दाग़ रह जातें हैं , कसक देने के लिए.

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  1. शायद यही ठीक भी है रेखा जी । कई गाँठें वक़्त ही खोल सकता है और कई ज़ख़्म वक़्त भी नहीं भर सकता । और यह भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें, कुछ दर्द तो सीने से लगाने के लिए हैं । कई बार ग़म भी अच्छा लगता है, आँसू बहाने में भी मज़ा आता है । आपने वो नग़मा तो सुना ही होगा – ‘मुझे ग़म भी उनका अज़ीज़ है कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है; यही ग़म है अब मेरी ज़िंदगी, इसे कैसे ख़ुद से जुदा करूं’ ।

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    1. * कुछ गाँठे खुलतीं नहीं है और ज़ख़्म जाते नहीं, क्योंकि कुछ बातें ज़िंदगी के साथ जुड़ जातीं हैं. आभार जितेंद्र जी , यह नग़मा बताने के लिए.

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    1. ज़िंदगी जितनी बार चोट दे कर सबक़ देतीं हैं, उतनी हीं बार मन का रफ़ू करना /सबक़ सीखना पड़ता है.
      यही हमारे महान , असली और modern ग़ालिब का ख़्याल है .😊

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      1. Sorry Neeraj . I am not interested in all these things.
        I don’t know why you are confused again.
        I’ll not respond to any silly comment of yours. so please be reasonable.

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