ख़ुद को समेटते समेटते
ना जाने कब दर्दे जिगर
खुल कर बिखर गए.
जितनी बार बांधा
उतनी बार ज़ख़्मों की
गाँठे खुल खुल गई.
शायद चोट को
खुला छोड़ देना हीं मुनासिब है.
खुली बयार और वक़्त
हीं इन्हें समेट ले ….भर दे .
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ख़ुद को समेटते समेटते
ना जाने कब दर्दे जिगर
खुल कर बिखर गए.
जितनी बार बांधा
उतनी बार ज़ख़्मों की
गाँठे खुल खुल गई.
शायद चोट को
खुला छोड़ देना हीं मुनासिब है.
खुली बयार और वक़्त
हीं इन्हें समेट ले ….भर दे .
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यह विडंबना हीं है कि