तराशते रहें ख़्वाबों को,
कतरते रहे अरमानों को.
काटते-छाँटते रहें ख़्वाहिशों को.
जब अक़्स पूरा हुआ,
मुकम्मल हुईं तमन्नाएँ,
साथ और हाथ छूट चुका था.
सच है …..
सभी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
किसी को जमीं,
किसी को आसमाँ नहीं मिलता.
तराशते रहें ख़्वाबों को,
कतरते रहे अरमानों को.
काटते-छाँटते रहें ख़्वाहिशों को.
जब अक़्स पूरा हुआ,
मुकम्मल हुईं तमन्नाएँ,
साथ और हाथ छूट चुका था.
सच है …..
सभी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
किसी को जमीं,
किसी को आसमाँ नहीं मिलता.
ग्रेट वाइल्डबीस्ट माइग्रेशन – हर साल अफ्रीका में आश्चर्य जनक दृश्य दिखता है। तंजानिया के सेरेन्गेटी और केन्या के मसाई मारा में भोजन के लिये लाखों जानवरों का महा प्रवास।
देखा था पशुअों का माइग्रेशन
केन्या, अफ्रिका के जंगलों में।
एक हीं दिशा में,
स्कूल के बच्चों जैसे अनुशासित और अनंत लंबी पंक्तियों में लयबद्ध दौङते,
भागते वाइल्डबीस्ट और ज़ेबरा के झुंङों को।
नदियों मे मगरमच्छों, धरा पर शेरों के शिकार बनते,
मैदान, नदी–नाले पार करते, क्रूर मौत से बचते–बचाते।
अौर सुना था…..
बसंत आने के साथ होता है दुनिया भर में पक्षियों का माइग्रेशन।
पंखों के उड़ान की अद्भुत शक्ति के साथ
अपने घरों को लौटते हैं ।
आर्कटिक टर्न पक्षी, चमगादड़, व्हेल, सामन मछलियां, तितलियाँ, पेंगुइन……
इन विश्व यात्रियों की महा यात्रा युगों-युगों से
ऋतु परिवर्तन के साथ नियमित चली आ रही है।
यह प्रकृति का विधान है।
लेकिन देखा है पहली बार मानव-माइग्रेशन।
भूखे-प्यासे जलती-तपती धूप में जलते अौ चलते लोग,
अपने घरों की अोर………
दो विचार, दो अलग युग में जिसके अर्थ समान हैं। Two thoughts of two different eras with similar meaning.
– Shams Tabriz ( Rumi’s spiritual Instructor)
जागता रहा चाँद सारी रात साथ हमारे.
पूछा हमने – सोने क्यों नहीं जाते?
कहा उसने- जल्दी हीं ढल जाऊँगा.
अभी तो साथ निभाने दो.
फिर सवाल किया चाँद ने –
क्या तपते, रौशन सूरज के साथ ऐसे नज़रें मिला सकोगी?
अपने दर्द-ए-दिल औ राज बाँट सकोगी?
आधा चाँद ने अपनी आधी औ तिरछी मुस्कान के साथ
शीतल चाँदनी छिटका कर कहा -फ़िक्र ना करो,
रात के हमराही हैं हमदोनों.
कितनों के….कितनी हीं जागती रातों का राज़दार हूँ मैं.
गुलाबी डूबती शाम.
थोड़ी गरमाहट लिए हवा में
सागर के खारेपन की ख़ुशबू.
सुनहरे पलों की ….
यादों की आती-जाती लहरें.
नीले, उफनते सागर का किनारा.
ललाट पर उभर आए नमकीन पसीने की बूँदें.
आँखों से रिस आए खारे आँसू और
चेहरे पर सर पटकती लहरों के नमकीन छींटे.
सब नमकीन क्यों?
पहले जब हम यहाँ साथ आए थे.
तब हो ऐसा नहीं लगा था .
क्या दिल ग़मगिन होने पर सब
नमकीन…..खारा सा लगता है?
सुहाना शाम थी। मैं सोफ़े पर अधलेटी टीवी देख रही थी। दिन भर की भाग – दौड़ के बाद बड़ा अच्छा लगता है आराम से बैठ कर अपना मन पसंद टीवी कार्यक्रम देखना। अगर ऐसे में हाथों में गरमा – गरम चाय का प्याला हो। तब और भी अच्छा लगता है। ऐसे में लगता है कि कोई परेशान ना करे। ना कोई छेड़े। फोन की घंटी भी उकताहट पैदा कर देती है। वह दिन भी ऐसा ही था। मैं बड़े मनोयोग से टीवी देख रही थी।
तभी फोन की आवाज़ आई। शायद कोई मैसेज था। मन में ख्याल आया – बाद में देखूँगी। पर फिर मैंने सोचा कहीं मेरे ब्लॉग की कोई सूचना या वोट तो नहीं है। ब्लॉग लिखना बहुत अच्छा लगता है। पर उसके ज्यादा खुशी होती है उसके बारे में वोट या कमेंट्स पढ़ कर। मैं अपने इस लोभ को रोक नहीं पाई। फोन हाथों में ले कर देखा। मैसेंजर पर किसी का मैसज था। फेसबुक पर भी आमंत्रण था। नाम तो जाना पहचाना था, पर सरनेम कुछ अलग था।
यही विरोधाभास है हमारे यहाँ। लड़कों के नाम तो ज्यों के त्यों रहते है। पर लड़कियों को अपने परिचय में कुछ नया जोड़ना पड़ता है शादी के बाद। मुझे पूरा नाम पढ़ कर ठीक से कुछ याद नहीं आ रहा था। मानव स्वभाव भी बड़ा विचित्र होता है। अक्सर हमें आधी अधूरी कहानियां ज्यादा परेशान करती है। हमारी पूरी कहानी जानने की चाह का फायदा टीवी सीरियल वाले भी उठाते हैं। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ। मेरे आधी याद ने मेरा पूरा ध्यान उधर ही खींच लिया। यह किसका मैसेज है? दिमाग में यह बात घूमने लगी।
निर्णय नहीं ले पा रहीं थी। जीत अधूरे टीवी कार्यक्रम की होगी या अधूरी याद की। आखिरकार मैंने फेसबुक देखा। आँखों के आगे लाभग 36 वर्ष पुराने दिन घूमने लगे। यह तो लिली है। हम दोनों ने बचपन का बहुत खूबसूरत समय साथ गुजारा था। हम एक ही कॉलोनी में रहते थे। हमारे घर आमने सामने था। हमारे पारिवारिक संबंध थे। साथ में खेलना कूदना और समय बिताना। हमने ना जाने कितनी होली साथ खेली थीं, और दुर्गा पूजा के कार्यक्रम इकट्ठे मनाये । ढेरो मीठी यादों ने घेर लिया।
मेरे पिता के तबादले के बाद हमलोगों का साथ छूट गया था। हमारी शादियाँ हो गई। हमारे उपनाम बदल गए। परिवार और बच्चों में उलझ कर हमारी जिंदगी तेज़ी से आगे बढ़ गई। किसी जरिये से उसे मेरे बारे में मालूम हुआ था। तभी लिली का फोन आ गया। उसकी आवाज़ में उत्साह और खुशी झलक रही थी। हम बड़े देर तक भूली- बिसरी यादों को बताते, दोहराते रहे।
बचपन का साथ और यादें इतनी मधुर होती है।यह तभी मैंने महसूस किया। सचमुच बड़ा मार्मिक क्षण था वह। आज इतने समय के बाद हमारी बातें हो रहीं थी। जब हमारे बच्चे बड़े हो चुके है। दुनिया बहुत बदल चुकी है। पर बचपन का वह साथ आज भी मन में उल्लास भर देता है।
आसमान के बादलों से पूछा –
कैसे तुम मृदू- मीठे हो..
जन्म ले नमकीन सागर से?
रूई के फाहे सा उङता बादल,
मेरे गालों को सहलाता उङ चला गगन की अोर
अौर हँस कर बोला – बङा सरल है यह तो।
बस समुद्र के खारे नमक को मैंने लिया हीं नहीं अपने साथ।
डूबते सूरज की लाल किरणो से निकलती आभा चारो ओर बिखरी थी. सामने, ताल का रंग लाल हो गया था. मैं अपनी मोबाईल से तस्वीर लेने लगी. डूबते सूर्य किरणों के साथ सेल्फी लेने की असफल कोशिश कर रही थी. पर तस्वीर ठीक से नहीं आ रही थी. तभी पीछे से आवाज़ आई – ” क्या मैं आपकी मदद कर सकती हूँ ? “चौक कर पलटी तो सामने एक खुबसूरत , कनक छडी सी, आयत नयनो वाली श्यामल युवती खड़ी थी.
मैंने हैरानी से अपरिचिता को देखा और पूछा – “आप को यहाँ पहले नहीं देखा. कहाँ से आई है? और मोबाईल उसकी ओर बढ़ा दिया . उसने तस्वीरें खींचते हुये कहा – कहते हैं , डूबते सूरज के साथ तस्वीरें नही लेनी चाहिये. मैं भी अस्ताचल सूर्य के साथ अपनी तस्वीर लिया करती थी. फ़िर गहरी नज़रों से उसने मुझे देखते हुये मेरे मन की बात कही – बडे कलात्मक लगते है न ऐसे फोटो? मैंने हामी में सिर हिलाया.
फ़िर मुस्कुराते हुए दूर गुजरती हुए राजमार्ग की ओर इशारा करते हुए कहा -” मैं वहाँ रहती हूँ. मैं तो आपको रोज़ देखती हूँ. आप सुबह मेरे आगे ही तो योग अभ्यास करती है. मेरा नाम नागवेणी है , पर यह नाम आप पर ज्यादा जंचेगा . आपकी नाग सी लम्बी , मोटी , बल खाती चोटी मुझे बड़ी आकर्षक लगती है. अब उसकी बातों का सिलसिला ख़त्म ही नहीं हो रहा था. मान ना मान मैं तेरी मेहमान वाली उसकी अदा से मैं बेजार होने लगी थी. योग निद्रा कक्षा में जाने का समय होते देख मैंने उस से विदा लिया.
अगली शाम मैं हरेभरे वृक्षों के बीच बनी राह से गुजरते हुये अपने पसंदीदा स्थल पर पहुँची. पानी के झरने की मधुर कलकल और अस्तगामी सूर्य के लाल गोले के सम्मोहन में डूबी थी. तभी , मधुर खनकती आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग कर दिया. नागवेणी बिल्ली की तरह दबे पैर , ना जाने कब मेरे बगल में आकर खड़ी हो गई थी.
उसकी लच्छेदार गप्पों का सिलसिला फ़िर से शुरू हो गया. अचानक उसने पूछा -आप यहाँ कब से आई हुई हैं ?”आप चित्रकारी भी करती हैं ना ? आपकी लम्बी , पतली अंगुलियों को देख कर ही मैं समझ गई थी कि यह किसी कलाकार की कलात्मक अंगुलियाँ हैं . डूबते सूर्य की पेंटिंग बनाईये ना”. उसने मेरे बचपन के शौक चित्रकारी की बात छेड़ कर गप्प में मुझे शामिल कर लिया . मैंने कहा -” हाँ , चित्रकारी कभी मेरा प्रिय शगल था. अब तो यह शौक छूट गया है.
उसकी बात का जवाब देते हुये मैंने मुस्कुराते हुये कहा -“तीन दिनों पहले इस नेचर क्योर इन्स्टिट्यूट में आई हूँ अभी एक सप्ताह और रहना है. यहाँ चित्रकारी का सामान ले कर नहीँ आई हूँ “.मेरी मुस्कुराहट के जवाब में मुस्कुराते हुये उस ने अपने पीठ की ओर मुडे दाहिने हाथ को सामने कर दिया. मैंने अचरज से देखा. उसने लम्बी ,पतली, नाजुक उँगलियों में चित्रकारी के सामान थाम रखे थे. मैंने झिझकते हुये कहा – ” मैं तुम्हारा सामान नहीं ले सकती”.
“हद करती हैं आप , मुझसे दोस्ती तो कर ली , अब इस मामूली से सामान से इनकार क्यों कर रही हैं? देखिये , मेरे दाहिने हाथ में चोट लगी हैं. इसलिये मैं भी चित्र नहीं बना पा रहीं हूँ”. दूर गुजरते नेशनल हाईवे की ओर इशारा करती हुये बोली – “एक महीने पहले , 14 जनवरी को ठीक वहीं , सड़क पार करते समय दुर्घटना में मुझे चोट लग गई थी. अभी आप ही इसे काम में लाइये.
मैंने उसे समझाने की कोशिश की – ” देखो नागवेणी, ना जाने क्यों , अब पहले के तरह चित्र बना ही नहीँ पाती हूँ. एक -दो बार मैंने कुछ बनाने की कोशिश भी की थी. पर आड़ी -तिरछी लकीरों में उलझ कर रह गई .”आप शांत मन से चित्र बना कर तो देखिये. फ़िर देखियेगा अपनी कला का जादू. अपने आप ही आप की उँगलियाँ खूबसूरत चित्रकारी करने लगेंगी” नागवेणी ने रहस्यमयी आवाज़ में कहा और बच्चों की तरह खिलखिला कर हँसने लगी. मैं भी उसकी शरारत पर हँसने लगी.
मैंने अपनी और नागवेणी की ढेरों सेल्फी ली और वहीं एक चट्टान पर बैठ कर तस्वीरें उकेरने लगी. तभी किसी ने मेरे पीठ पर हाथ रखा. मुझे लगा नागवेणी हैं. पलट कर देखा. मेरे पड़ोस के कमरे की तेज़ी खड़ी थी. उसने पूछा – “आप अकेले यहाँ क्या कर रहीं हैं ? फ़िर मेरे हाथों मॆं पकड़े चित्रों को देख प्रसंशा कर उठी. सचमुच बड़े सुंदर चित्र बने थे. नागवेणी ने ठीक ही कहा था. शायद यह मेरे शांत मन का ही कमाल था. पर नागवेणी चुपचाप चली क्यों गई ? मैने तेज़ी से पूछा – “तुमने नागवेणी को देखा क्या “? तेज़ी ने बताया कि वह नागवेणी को नहीं पहचानती हैं.
अगले दो दिनों में मैंने ढेरों खुबसूरत चित्र बना लिये थे. यह सचमुच जादू ही तो था. इतने सुंदर और कलात्मक चित्र मैंने आज़ से पहले नहीं बनाये थे. मुझे नागवेणी को चित्र दिखाने की बड़ी चाहत हो रही थी. पर उस से मुलाकात ही नहीं हो रहीं थी. इतनी बडे , इस प्रकृतिक चिकित्सालय में सब इतने व्यस्त होते हैं कि मिलने का समय निकालना मुश्किल हो जाता हैं. मैने बहुतों से नागवेणी के बारे में पूछा पर कोई उसके बारे में बता नहीं पाया. बात भी ठीक हैं, इतने सारे लोगो के भीड़ में सब को पहचानना मुश्किल हैं.
रात मॆं टहलने के समय दूर नागवेणी नज़र आई .मैंने उसे पुकारा. पर वह रुकी नही. मै दौड़ कर उसके पास पहुँची और धाराप्रवाह अपनी खुबसूरत चित्रकारी के बारे में बताने लगी. मैने हँस कर कहा -” तुमने तो जादू कर दिया हैं नागवेणी. दो दिन कहाँ व्यस्त हो गई थी “.नागवेणी ने मेरे बातों का जवाब नही देते हुये कहा – मैं भी बहुत सुंदर चित्र बनाती थी. मैने अपनी कला तुम्हे उपहार में दे दी हैं. तुम मेरे साथ दोस्ती निभाओगी ना ? तुम मुझे बड़ी अच्छी लगती हो.
उसकी बहकी बहकी बातें सुन मैंने नजरे उसके चेहरे पर डाली. उसने उदास नजरो से मुझे देखा और कहा – ” अब तो तुम वापस जाने वाली हो पर मैं तुमसे मिलने आती रहुँगी. पत्तों पर किसी के कदमों की चरमराहट सुन मैंने पीछे देखा. तेजी मुझे आवाज़ दे रही थे. मैने नागवेणी की कलाई थाम कर कहा -“चलो , तुम्हे तेज़ी से परिचय करा दूँ. फरवरी महीने के गुलाबी जाडे में नागवेणी की कोमल कलाई हिम शीतल थी. मैंने घूम कर तेज़ी को आवाज़ दिया. तभी लगा मेरी हथेलियों से कुछ फिसल सा गया.
तेज़ी ने पास आते हुये पूछा – ” इतनी रात में आप अकेले यहाँ क्या कर रही हैं ? मैने पलट कर देखा. नागवेणी का कहीँ पता नहीँ था. मुझे उस पर बड़ी झुंझलाहट होने लगी बड़ी अजीब लड़की हैं. कहाँ चली गई इतनी जल्दी ?
*****
उस दिन मैं लाईब्रेरी मॆं बैठी चित्र बना रही थी. तेजी अपने मोबाईल से तस्वीरें लेने लगी. यहाँ से जाने से पहले सभी एक दूसरे के फोटो और फोन नम्बर लेना चहते थे. तभी टेबल के नीचे रखे पुरानेअख़बार की एक तस्वीर जानी पहचानी लगी . मैंने उसे हाथों मॆं उठाया और मेरी अंगुलियाँ काँप उठी . ठंढ के मौसम मॆं ललाट पर पसीने की बूँदें झलक उठीं. मैंने अख़बार की तिथि पर नज़रें डाली.
लगभग एक महीने पुरानी , जनवरी के अख़बार मॆं एक अनजान युवती के शव को शिनाख्त करने की अपील छपी थी. जिसकी मृत्यु 14 जनवरी को राज़ मार्ग पर किसी वाहन से हुए दुर्घटना से हुई थी. यह तस्वीर नागवेणी की थी. मैंने अपनी पसीने से भरी कांपती हथेलियों से मोबाईल निकाली. अपनी और नागवेणी की तस्वीरों को देखने लगी. पर हर तस्वीर मॆं मैं अकेली थी.
मेरे कानों मॆं नागवेणी की आवाज़ गूँजने लगी –कहते हैं , डूबते सूरज के साथ तस्वीरें नही लेनी चाहिये. मैं भी अस्ताचल सूर्य के साथ अपनी तस्वीर लिया करती थी. मैं भी बहुत सुंदर चित्र बनाती थी. मैने अपनी कला तुम्हे उपहार में दे दी हैं. तुम मेरे साथ दोस्ती निभाओगी ना ? मैं तुमसे मिलने आती रहूँगी.
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