जिंदगी के रंग -207

प्रश्न  बङा कठिन है।

 दार्शनिक भी है, तात्त्विक भी है।

पुराना  है,  शाश्वत-सनातन भी  है।

तन अौर आत्मा या कहो रुह और जिस्म !!

इनका  रिश्ता है  उम्रभर का।

खोज रहें हैं  पायें कैसे?

 दोनों को एक दूसरे से मिलायें कैसे?

कहतें हैं दोनों  साथ  हैं।

फिर भी खोज रहें हैं – मैं शरीर हूँ या आत्मा? 

चिंतन-मनन से गांठें खोलने की कोशिश में,

 अौर उलझने बढ़ जातीं हैं।

मिले उत्तर अौर राहें, तब बताना।

 पूरे जीवन साथ-साथ हैं,

पर क्यों मुश्किल है ढूंढ़ पाना ?

 

 

जिंदगी के रंग -206

कलम थामे

     लिखती उंगलियाँ आगे बढ़ती जातीं हैं।

           तब  एक जीवंत रचना उभरती हैं।

                ये उंगलियाँ संदेश हैं –

                        जिंदगी आगे बढ़ते जाने का नाम है।

                                 आधे पर रुक कर,

पंक्तियोँ…लाइनों को अधूरा छोङ कर,

       लिखे अक्षरों को आँसूअों से धुँधला कर,

                 सृजनशीलता…रचनात्मकता का अस्तित्व संभव नहीं।

                         यही पंक्तियाँ… कहानियाँ… कविताएँ,

                                   पन्नों पर उतर,

                                             आगे बढ़नें  की राहें  बन जातीं हैं। 

 

शांती-चैन की खोज

समय के साथ भागते हुए लगा – घङी की टिक- टिक हूँ…

तभी

किसी ने कहा  – जरुरी बातों पर फोकस करो,  

तब लगा कैमरा हूँ क्या?

मोबाइल…लैपटॉप…टीवी……..क्या हूँ?

सबने कहा – इन छोटी चीजों से अपनी तुलना ना करो।

हम बहुत आगे बढ़ गये हैं

देखो विज्ञान कहा पहुँच गया है………

सब की बातों  को सुन, समझ नहीं आया 

आगे बढ़ गये हैं , या उलझ गये हैं ?

अहले सुबह, उगते सूरज के साथ देखा

लोग योग-ध्यान में लगे 

पीछे छूटे शांती-चैन की खोज में।