सागर के दिल पर तिरती- तैरती नावें,
याद दिलातीं हैं – बचपन की,
बारिश अौर अपने हीं लिखे पन्नों से काग़ज़ के बने नाव।
नहीं भूले कागज़ के नाव बनाना,
पर अब ङूबे हैं जिंदगी-ए-दरिया के तूफान-ए-भँवर में।
तब भय न था कि गल जायेगी काग़ज की कश्ती।
अब समझदार माँझी
कश्ती को दरिया के तूफ़ाँ,लहरों से बचा
तलाशता है सुकून-ए-साहिल।