जिंदगी के रंग -37 

तेज हवा में झोंके में झूमते ताजे खिले गुलाब 

की पंखुड़ियॉं  झड़ झड़ कर बिखरते देख पूछा –

नाराज नहीँ हो निर्दयी हवा के झोंके से ?

फूल ने कहा यह तो काल चक्र हैँ

 आना – जाना,  खिलना – बिखरना 

नियंता …ईश्वर…. के हाथों में हैँ

 ना की इस अल्हड़ नादान  हवा के  झोंके के वश में 

 फ़िर इससे कैसी  नाराजगी ? ? 

16 thoughts on “जिंदगी के रंग -37 

  1. क्या बात…….लाजवाब |
    कभी इन्ही अल्हड हवाओं में मैंने जीभर कर झूमा,
    झूम झूम ना जाने कितनों को अपनी ओर आकर्षित भी किया,
    आज इन्हीं हवाओं में मेरा अस्तित्व समां रहा है,
    ये सचमुच प्रकृति का ही खेल है कभी हम खेलते हैं कभी प्रकृति समय आने पर खेल जाती है.

    Liked by 2 people

      1. रेखा जी ने जो लिखा उसी को हमने अपने शब्दों में अभिब्यक्त किया है।सुक्रिया आपने पसंद किया और सराहा।

        Liked by 2 people

  2. सुंदर कविता है रेखा जी आपकी । स्वर्गीय निदा फ़ाज़ली साहब द्वारा रचित स्वर्गीय जगजीत सिंह जी की गाई हुई ग़ज़ल भी तो है – ‘अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं; रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं’ ।

    Liked by 1 person

    1. हार्दिक आभार ! वाह, बङी खूबसूरत बात कही आपने। आपको बहुत शेर, गज़ल अौर गीत याद रहते हैं, जो काबिले तारीफ है।

      Liked by 1 person

Leave a reply to Savita Shetty Cancel reply