तेज हवा में झोंके में झूमते ताजे खिले गुलाब
की पंखुड़ियॉं झड़ झड़ कर बिखरते देख पूछा –
नाराज नहीँ हो निर्दयी हवा के झोंके से ?
फूल ने कहा यह तो काल चक्र हैँ
आना – जाना, खिलना – बिखरना
नियंता …ईश्वर…. के हाथों में हैँ
ना की इस अल्हड़ नादान हवा के झोंके के वश में
फ़िर इससे कैसी नाराजगी ? ?
वाह.👌
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:-)आभार।
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क्या बात…….लाजवाब |
कभी इन्ही अल्हड हवाओं में मैंने जीभर कर झूमा,
झूम झूम ना जाने कितनों को अपनी ओर आकर्षित भी किया,
आज इन्हीं हवाओं में मेरा अस्तित्व समां रहा है,
ये सचमुच प्रकृति का ही खेल है कभी हम खेलते हैं कभी प्रकृति समय आने पर खेल जाती है.
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वाह !!! कविता के लिये सुंदर कविता।
बहुर अच्छा लगा प्रशंसा का यह अंदाज़। 🙂
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क्या लिखा है आप ने बहुत सुन्दर
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बहुत शुक्रिया आपका। 🙂
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रेखा जी ने जो लिखा उसी को हमने अपने शब्दों में अभिब्यक्त किया है।सुक्रिया आपने पसंद किया और सराहा।
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आपके शब्द बङे सुंदर हैं। 🙂
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आभार आपका।
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आपका भी।
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सुंदर कविता है रेखा जी आपकी । स्वर्गीय निदा फ़ाज़ली साहब द्वारा रचित स्वर्गीय जगजीत सिंह जी की गाई हुई ग़ज़ल भी तो है – ‘अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं; रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं’ ।
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हार्दिक आभार ! वाह, बङी खूबसूरत बात कही आपने। आपको बहुत शेर, गज़ल अौर गीत याद रहते हैं, जो काबिले तारीफ है।
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बहुत खूबसूरत और अर्थपूर्ण कविता!
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शुक्रिया सविता .
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https://theopenthought.wordpress.com/2018/02/17/just-friends-the-first-time/
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🙂 nice post
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