लावा

धरती के दिल का दर्द जब फूट निकलता है। उबलते दर्द से पत्थर भी मोम सा पिघलता है। माणिक-पोखराज जैसे ख़ूबसूरत रंग लिए, आतशीं-लावा दमकता है। पास जाओ तो गरमाहट और आग बताती है, ज़मीं का क़तरा-क़तरा दर्द से लरज़ता है। दर्द भरा हर वजूद ऐसे हीं सुलगता है।