ज़िंदगी के रंग – 214

ख़्वाब था, ख़्वाहिशें थीं या हक़ीक़त …. मालूम नहीं!

लगता था जैसे जागती अँधेरी रातों में,

नींद आते कोई आ बैठा पायताने, सहलाता तलवों को.

जहाँ उग आए थे फफोले, ज़िंदगी के दौड़ में भागते-दौड़ते .

दर्द देते,  फूट गए थे कुछ छाले…. फफोले…… .

क्या जागती ज़िंदगी में भी कोई मलहम लगाने आएगा?