हौसला

तेल खत्म होते दिये की धीमी लौ की पलकें झपकने लगी,

हवा के झोंके से लौ लहराया

अौर फिर

पूरी ताकत से जलने की कोशिश में……

 धधका …..तेज़ जला…. अौर आँखें बंद कर ली।

बस रह गई धुँए की उठती लकीरें अौर पीछे की दीवार पर कालिख के दाग।

तभी पूरब से सूरज की पहली किरण झाँकीं।

शायद दीप के हौसले को सलाम करती सी।

24 thoughts on “हौसला

  1. बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं ये रेखा जी । ‘डोर’ फ़िल्म के गीत की याद दिला दी इसने :

    ये हौसला कैसे झुके,
    ये आरज़ू कैसे रुके;
    मंज़िल मुश्किल तो क्या
    धुंधला साहिल तो क्या
    तनहा ये दिल तो क्या

    राह पे कांटे बिखरे अगर
    उस पे तो फिर भी चलना ही है,
    शाम छुपा ले सूरज मगर
    रात को एक दिन ढलना ही है;
    रुत ये टल जाएगी
    हिम्मत रंग लाएगी
    सुबह फिर आएगी

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