तेल खत्म होते दिये की धीमी लौ की पलकें झपकने लगी,
हवा के झोंके से लौ लहराया
अौर फिर
पूरी ताकत से जलने की कोशिश में……
धधका …..तेज़ जला…. अौर आँखें बंद कर ली।
बस रह गई धुँए की उठती लकीरें अौर पीछे की दीवार पर कालिख के दाग।
तभी पूरब से सूरज की पहली किरण झाँकीं।
शायद दीप के हौसले को सलाम करती सी।
दिल को छूने वाली लाइन है
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बहुत आभार।
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श्री रामचरित मानस चौपाई की संछिप्त ब्याख्या पढ़े
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जी ज़रूर. आभार सुझाव के लिए.
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यदि आपकी अपनी सोच की लाइन हैं तो बेहद अच्छी सोच की प्रसन्नता
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जी, यह मेरी लिखी कविता है। पसंद करने के लिये आभार।
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बहुत शुक्रिया ।
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sanguine lines
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Thank you Akanksha.
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most welcome ma’am
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🙂
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Beautifully written ma’am 🙂
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Thank you so much Sneha. 🙂
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बेहतरीन
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waah….behtarin…..
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dhanyvad Madhusudan.
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बडीया👌
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शुक्रिया ।
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bahut hi khubsurat
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Shukriya Danish.
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Vah
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Thank you.
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बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं ये रेखा जी । ‘डोर’ फ़िल्म के गीत की याद दिला दी इसने :
ये हौसला कैसे झुके,
ये आरज़ू कैसे रुके;
मंज़िल मुश्किल तो क्या
धुंधला साहिल तो क्या
तनहा ये दिल तो क्या
राह पे कांटे बिखरे अगर
उस पे तो फिर भी चलना ही है,
शाम छुपा ले सूरज मगर
रात को एक दिन ढलना ही है;
रुत ये टल जाएगी
हिम्मत रंग लाएगी
सुबह फिर आएगी
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बहुत सुंदर गीत !!!!
आभार जितेंद्र जी इतने खूबसूरत जवाब के लिये।
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