बड़ा गुमान था कि,
चेहरा देख पहचान लेते हैं लोगों को .
तब हार गए पढ़ने में चेहरे.
खा गए धोखा ।
जब चेहरे पे लगे थे मुखौटे… …
एक पे एक।
बड़ा गुमान था कि,
चेहरा देख पहचान लेते हैं लोगों को .
तब हार गए पढ़ने में चेहरे.
खा गए धोखा ।
जब चेहरे पे लगे थे मुखौटे… …
एक पे एक।
वक़्त सिखाता, इंसान धरा पर
ठोकर खाता हैं यहां
बिन ठोकर चले ना सीधा
ठोकर सिखाती सदा यहां।।
देख चेहरा खाते धोखे
फिर पहचाने ख़ुद को यहां
सम्भल कर चलना फिर दौड़ना
तभी दौड़ पाए यहां।।
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हाँ वक़्त और ठोकर बहुत कुछ सिखाते हैं. आभार हरीश !
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This is the new normal
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Very true! Thank you 😊 Anuja.
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सच्चाई तो पीछे ही छुपी होती है रेखा जी, सामने तो मुखौटा ही होता है । बहरहाल आपकी इस बात ने दो फ़िल्मी गीत याद दिला दिए :
पहला – मुकेश जी और मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया हुआ :
दो जासूस, करें महसूस, कि दुनिया बड़ी ख़राब है
कौन है सच्चा, कौन है झूठा, हर चेहरे पे नक़ाब है
ज़रा सोचो, ज़रा समझो, ज़रा संभल के रहियो जी
दूसरा – आशा भोसले जी और विनोद राठौड़ जी का गाया हुआ :
किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी तुमने मगर कोई चेहरा भी तुमने पढ़ा है ?
पढ़ा है मेरी जां, नज़र से पढ़ा है
बता, मेरे चेहरे पे क्या क्या लिखा है
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मुझे इस बात का वास्तव में गुमान था कि काफी हद तक चेहरे से लोगों को पहचाना जा सकता है। पर अब तो शायद ज़्यादा मुखौटा हीं रह गया है। चेहरे कहीं-कहीं हीं नज़र आते हैं।
दोनों गीतों के लिये आपका आभार।
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beautiful poem
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Thank you 😊
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