अभी तो सफ़र अधूरा है .
ज़िंदगी के
कई मोड़ तो आये हीं नहीं हैं.
वह मँजंर भी सामने है
चले थे जहाँ से साथ।
फिर …….
सफ़र अधूरा क्यों छोङ दिया?
साथ चलने की बात थी मंजिल तक .
हम तमस में खोज है किरणें आशा की .
तेरा साया भी कर गया छल।
ऐसे …..
जिम्मेदारियों से भागने की
आदत तो ठीक नहीं ,
नाराज़ हैं हम भी .
ना मनाने की आदत तो तुम्हारी नहीं थी पहले?

तमस – अंधकार , अँधेरा.

हर मोड़ नई इक उलझन है, क़दमों का सँभलना मुश्किल है
वो साथ न दें फिर धूप तो क्या, साये में भी चलना मुश्किल है
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बहुत मार्मिक गज़ल / कविता है। बहुत धन्यवाद आपका।
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“ना मनाने की आदत तो तुम्हारी नहीं थी पहले?” ,वक़्त बदल जाता है रेखा जी!
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बिलकुल, पर यहाँ तो वक्त के साथ दुनिया भी बदल गई है।
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