काग़ज़ी मन

इत्रे गुलाब

मुट्ठी में दबे,

मसले – कुचले गुलाबों 

की खुशबू फ़िजा में तैर गई।

हथेलियाँ इत्रे गुलाब अर्क

से भर गईं

क्या हम ऐसे बन सकते हैं? 

मर्म पर लगी चोट 

पीङा नहीं सुगंध  दे ???

अनमोल पल (कविता)

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मुट्ठी में पकडे रेत की तरह ,

ना जाने कब वक्त फिसल गया.

जिंदगी की आपाधापी में.

वर्षों बीत गये जैसे पल भर में.

 पुराने दोस्तों से अचानक 

भेट हो जाती हैं.

तब याद आता हैं ,

दशकों बीत गये , बिना आहट  के.

तब याद आते हैं 

वे सुनहरे – रुपहले दिन.

वे यादें , आज़ भी अनमोल हैं ,

वे साथी आज़ भी अनमोल हैं.

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