हम थे ख़फ़ा ख़फ़ा उन से।
और बेरुख़ी से वो चल दिए,
वहाँ जहाँ हम मना ना सके।
वफ़ा-जफ़ा, वफ़ाई-बेवफ़ाई,
के ग़ज़ब हैं अफ़साने।
ग़ज़ब हैं फ़साने।
हमें ऐतबार हीं नहीं रहा ज़माने पर।
हम थे ख़फ़ा ख़फ़ा उन से।
और बेरुख़ी से वो चल दिए,
वहाँ जहाँ हम मना ना सके।
वफ़ा-जफ़ा, वफ़ाई-बेवफ़ाई,
के ग़ज़ब हैं अफ़साने।
ग़ज़ब हैं फ़साने।
हमें ऐतबार हीं नहीं रहा ज़माने पर।
चारो ओर छाया रात का रहस्यमय अंधेरा,
दिन के कोलाहल से व्यथित निशा का सन्नाटा,
गवाह है अपने को जलाते चराग़ों के सफ़र का।
कभी ये रातें बुला ले जाती है नींद के आग़ोश में ख़्वाबों के नगर।
कभी ले जातीं है शब-ए-विसाल और
कभी दर्द भरी जुदाई की यादों में ।
हर रात की अपनी दास्ताँ और अफ़साने होतें है,
और कहने वाले कह देतें हैं- रात गई बात गई !
शब-ए-विसाल – मिलन की रातें/ the night of union
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