आज़ाद परिंदे (कविता )

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बनाने वाले ने सब को

आज़ाद बनाया.

बाँध लिया हमने अपने को

रिश्ते नाते,  अपने-पराये, धर्म देश  की  सीमा …..

जैसे  बंधनों  में.

हमसे तो अच्छे

ये आज़ाद परिंदे हैं.

हर लम्हा लाता है, नई उम्मीद ( कहानी) #YaaronKiBaraat #यारोंकीबारात

           बात कुछ पुरानी है। मैं, बेटी की शादी  के सिलसिले में लखनऊ गई हुई थी। सुबह का समय था। मौसम थोङा सर्द था। गुलाबी जाङा खुशगवार लग रहा था। हम सब लङके वालों से मिल कर बातें कर हीं रहे थे। तभी, मेरे पति को उनके आफिस से फोन आया। उन्हों  ने बताया, उन्हें तुरंत किसी  जरुरी काम के सिलसिले में दिल्ली जाना होगा। जबकी मेरा अौर मेरे पति का पटना लौटने का रात, लगभग 11 बजे के ट्रेन का टिकट कटा  हुआ था।

          तब, हमारी बेटी पुणे में नौकरी कर रही थी। उसे भी रात  7:45  की ट्रेन पुष्पक एक्सप्रेस से  लखनऊ से मुंम्बई अौर फिर वँहा से पुणे जाना था। हम सब थोङा चिंतित हो गये क्योंकि, नई जगह पर रात के समय हमें अपने-आप ट्रेनें पकङनी थीं। पर हमारे पास कोई हल नहीं था।

               मेरे पति तत्काल दिल्ली निकल गये। मुझे लखनऊ चिकेनकारी के कपङे खरीदने की बङी ललक थी, अौर मेरी बिटीया को रिक्शे में बैठ लखनऊ घुमने की तमन्ना थी। हम दोनों ने सोंचा, रिक्शे में हजरत गंज चलते हैं। एक पंथ दो काज हो जायेगा। हमारे पास समय भी था। वहाँ घुमते हुए मुझे नीवा याद आने लगी। वह लखनऊ में हीं रहती थी। पहले फोन पर हम हमेशा बातें करतें थे।   हम दोनों में दाँत काटी  दोस्ती  थी।  साथ बैठ कर चित्रकारी करना, किताबें पढ़ना, बोनसाई पौधे लगाना हमारा शगल था। वह हमेशा कुछ नया करने की कोशिश में रहती, अौर मैं उसकी राजदार होती थी।  रेलवे में पदाधिकारी  बन हम सहेलियों के बीच उसने एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया था। वह प्रकाश पादुकोन की बहुत बङी प्रशंसक थी।

         1980 में, जब पादुकोन ङॉनिश व स्विङिश अोपेन को जीतने वाले एकल बैङमिंटन  के पहले भारतीय खिलाङी  बने, तब वह खुशी के मारे  वे सारी पत्रिकायें ले कर भागती हुई  मेरे पास पहुचीं थी, जिनमें यह समाचार अौर तस्वीरें छपी थीं। उस साल यानि 1980 में  अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा अौर  जीनत अमान  की फिल्म दोस्ताना हम दोनों ने अपनी दोस्ती के नाम करते हुए साथ-साथ देखा था। यह फिल्म भी विजय (अमिताभ बच्चन) और रवि (शत्रुघ्न सिन्हा) की  दोस्ती पर आधारित थी। उसके बाद हम दोनों की शादी हो गई।  काफी समय तक हम फोन से एक दूसरे  से जुङे रहे। फिर ना जाने क्यों उसने अचानक  फोन उठाना अौर बातें करना बंद कर दिया। मन में थोङा आक्रोश हुआ। मुझे लगने लगा शायद वह बदल गई है। अब  ना जाने लखनऊ में कहाँ रहती होगी?  

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मैं अौर मेरी बेटी   दोनों रिक्शे पर हजरत गंज पहुँचे। मन खुश हो गया, हजरत गंज की रौनक अौर खुबसूरती देख कर। खरीदारी करते-करते जब, अचानक घङी पर नज़र पङी। तब, देखा देर हो रही थी। हम दोनों घबरा गये। जल्दी- जल्दी वापस लौटे। सामान समेट कर भागते हुए स्टेशन के लिये निकल पङे।

                  पर वहाँ की सङकों के भीङ में उलझ गये। आपाधापी में स्टेशन पहुँचने पर देखा ट्रेन खुलने हीं वाली है। खैर ! बेटी को विदा कर मैं अपनी ट्रेन पकङने दूसरे स्टेशन की अोर रवाना हुई। दोनों स्टेशन पास-पास हीं थे। एक हाथ में सामान अौर दूसरे कंधे पर बैग ले कर ढ़ेरों सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती, ढ़ूँढ़ती-ढ़ूँढ़ती अपने गंतव्य प्लेटफार्म पर पहुँची। रात, लगभग 10:30 बजे उदघोषणा हुई। 10:45 की लखनऊ एल टी टी एक्सप्रेस एक घंटे विलंब से आयेगी। 
 

                उस रात, मैं अकेले प्लेटफार्म पर घबराने लगी। रात में ठंड बढ गई थी। हलका -हलका कोहरा चारो अोर पसर गया था। प्लेटफार्म भी सुनसान हो चला था। बहुत से लोग रात में अकेली महिला देख अजीब नजरों से घुरते हुए गुजर जाते। मैं शाॅल से अपने चेहरे को अौर अपने आप को ढंकने का असफल प्रयास करने लगी। घङी की गति जैसे धीमी हो गई थी। मानो समय आगे बढना भूल गया था। तभी मुझे याद आया, मैंने हङबङी में अपने खाने का ङब्बा बेटी के हाथों में पकङा दिया था अौर वापस लेना भूल गई थी। मुझे नींद, भूख,ठंड अौर भय ने घेर लिया। जब ट्रेन के आने की उदघोषणा हुई। तब मेरी जान में जान आई।

              तब लखनऊ मेरे लिये नई जगह थी। बाद में वहाँ काफी साल रहने का मौका मिला। यह नवाबों का बसाया एक खुबसूरत शहर है। जहाँ गोमती नदी लगभग शहर के बीच से बहती, कई जगहों पर मिल जाती है। लोग दोस्ताना हैं। अनेकों दर्शनिय पर्यटन स्थल हैं।

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        मैं सामान ले कर ट्रेन की अोर बढ रही थी, तभी कोई झटके से मेरा बैग छीन अंधेरे में खो गया। मैं अवाक रह गई। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, किस से मदद मागूँ? अब क्या करुँ? मेरे टिकट अौर पैसे उस बैग में हीं थे। ट्रेन भी खुलनेवाली थी। मैं रुआसीँ खङी रह गई। बिना टिकट ट्रेन  में चढना चाहिये या नहीं? अगर ट्रेन छोङ देती हूँ, तब कहाँ रहूँगी इस अनजान शहर में ? पैसे भी नहीं हैं।

               तभी, पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, – “मैं तो तुम्हें पीछे से देख कर हीं पहचान गई। तुम्हारी लंबी-मोटी चोटी आज भी वैसी हीं है। ” मैं हैरान थी। ऐसे मुसीबत की घङी में कौन है जो बिना मेरा चेहरा देखे मुझे पहचान गई? घुम कर देखा। कुछ पल लग गये पहचानने में। गुजरे समय ने हम दोनों को थोङा बदल दिया था। मेरे सामने  नीवा खङी थी। मेरी आपबीती सुन कर उसने मुझे हिम्मत बंधाई, हौसला दिया। उसका अपनापन  देख मैं उससे लिपट गई। उस पल मुझे एहसास हुआ – हर लम्हा लाता है, नई उम्मीद । 

     वह भी उसी ट्रेन में सफर करने वाली थी। उसने मुझे अपने साथ ट्रेन में बैठाया। ट्रेन खुल गई, तब उसने खाना निकाल कर खिलाया। परंतु, बिना टिकट अौर बिना पैसे मैं बेचैन थी। तब उसने मेरे बैग छिनतई की शिकायत दर्ज कराई।  नीवा के प्रति मेरे  पुराने आक्रोश ने भी मुझे अनमना कर रखा था।  उसने बताया  उसका  मोबाईल  खो जाने अौर फिर उसका फोन नंबर बदल जाने की वजह से वह मुझसे बातें नहीं कर पा रही थी। फोन के साथ  सारे फोन नंबर भी खो गये थे।

मैं बैग खोने की तकलिफ भूल  दोस्त  को वापस पाने की खुशी से अह्लादित थी। मेरे सारे गिले – शिकवे आँसुअों  में बह गये। वह रात हमनें दोस्ती के नाम कर दिया। पूरी रात, रास्ते भर हम दोनों गुजरे जमाने की कहानियों को याद करते रहे। अपनी-अपनी कहानी सुनाते अौर सुनते रहे।  साथ हीं  मैं  ये पंक्तियाँ गुनगुना रही थी –

जी करता है ये पल रोक लूं ,

दोस्तों के साथ बिताने को ।

दोस्त ही तो होते हैं असली दौलत,

        यूँ तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है कमाने को ।      

#@ZeeTV #YaaronKiBaraat.
http://www.ozee.com/shows/yaaron-ki-baraat.

कन्या पूजन ( कविता )


Indian Bloggers

 

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नवरात्रि की अष्टमी तिथि ,
प्रौढ़ होते, धनवान दम्पति ,
अपनी दरिद्र काम वालियों
की पुत्रियों के चरण
अपने कर कमलों से
प्यार से प्रक्षालन कर रहे थे.

अचरज से कोई पूछ बैठा ,
यह क्या कर रहें हैं आप दोनों ?

अश्रुपूर्ण नत नयनों से कहा –
“काश, हमारी भी प्यारी संतान होती.”
सब कुछ है हमारे पास ,
बस एक यही कमी है ,

एक ठंडी आह के साथ कहा –
प्रायश्चित कर रहें है ,
आती हुई लक्ष्मी को
गर्भ से ही वापस लौटाने का.

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Source: कन्या पूजन ( कविता )

तो लोग क्या कहेगें? (कविता)

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पूरे आस-विश्वास के साथ वह लौटी पितृ घर,

पिता की प्यारी-लाङली

पर ससुराल की व्यथा-कथा सुन,

सब ने कहा- वापस वहीं लौट जा।

किसी से कुछ ना बता,

वर्ना लोग क्या कहेगें ?

इतने बङे लोगों के घर की बातें बाहर जायेगी, तो लोग क्या कहेगें?

( लोग सोचतें हैं, घर की बेटियों को परेशानी में पारिवारिक सहायता मिल जाती है। पर पर्दे के पीछे झाकें बिना सच्चाई जानना मुशकिल है। कुछ बङे घरों में एेसे भी ऑनर किलिंग होता है)

Source: तो लोग क्या कहेगें? (कविता)

इंडोनेशिया पितृपूजा – एक विचित्र प्रथा

 

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पूर्वजों की उपासना के लिये पितृपक्ष, श्राद्ध  की परंपरा या पितृपूजा किसी न किसी रूप में प्राय हर जगह होती  है। हमारे यहाँ नव रात्री के पहले के १५ दिन पितृपक्ष कहलाता है। इस समय लोग अपने गुजरे स्वजनों को सम्मान देते हुए पितर या पितृपूजन करते हैं।

  इंडोनेशिया के  तोजारान लोगपितृपूजा को एक  महोत्सव के  रूप में मनाते हैं। वे हर तीन साल के बाद कब्र से अपने मृत रिश्तेदारों के शव को घर लाते हैं।  उनकी लाशों को साफ कर  नये कपड़े पहनाते हैं। वे परिजनों को हमेशा अपने बीच बनाये रखना चाहते है। यह वहाँ की प्राचीन पर विचित्र  परंपरा है।

 

 

शुभ नवरात्री – शक्ति उपासना

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देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् |
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ||

मां दुर्गा जीवन में आरोग्य और सौभाग्य  प्रदान करो।