#LookUpStories ख़ुशी की वह घड़ी ( blog related )

दोपहर लगभग 12 बजे का समय था। सोमवार का दिन था। अचानक मेरे पति ने मुझे फोन किया। वे बड़े घबराए हुए थे। उनकी आवाज़ में परेशानी झलक रही थी। आवाज़ में नाराजगी भी थी। उन्होने बताया कि बड़ी देर से वे हमारी बड़ी बेटी को फोन लगा रहें है। पर उसका फोन लग नहीं रहा है।
यह मेरे पति की हर दिन की आदत थी। वे दिन में फुर्सत के क्षणों में एक बार बेटी से बात जरूर करते थे। उस समय बड़ी बेटी पुणे में पढ़ाई कर रही थी। बच्चे जब घर से दूर होते हैं। तब उनका ध्यान रखना जरूरी होता है। उस दिन उन्होने बड़े झल्लये स्वर में कहा- “तुम्हारी बेटी का फोन क्यों नहीं लग रहा है?
मेरे पति की एक बड़ी अजीब आदत है। बच्चे जब अच्छा करते हैं, तब वे बड़े प्यार से उन्हें “मेरी बेटियाँ” कह कर बुलाते है। पर जब बेटियों से नाराज़ होते है तब अक्सर कहतें है- ‘तुम्हारी बेटियाँ’। उस दिन भी वह बार-बार नाराजगी से कह रहे थे – आजकल तुम्हारी बेटी बड़ी लापरवाह होती जा रही है। आज सुबह से उसने फोन नहीं किया है।
मैंने उन्हे समझाने की कोशिश की। हो सकता है, वह क्लास में हो। या किसी ऐसे जगह हो। जहाँ फोन ना लग रहा हो। पर थोड़ी देर बाद उन्होने बताया कि अभी भी फोन नहीं लग रहा हो। उनका सारा गुस्सा मुझ पर उतरने लगा।
ऐसा तो वह कभी नहीं करती है। मैंने भी उसे फोन करने की कोशिश की। पर फोन नहीं लगा। थोड़ी देर में मुझे भी बेचैनी होने लगी। मैं घबरा कर बार-बार फोन करने लगी। पर कोई फायदा नहीं हुआ। उसके कमरे में रहनेवाली उसकी सहेली को फोन करने का प्रयास भी बेकार गया। हॉस्टल में फोन करने पर मालूम हुआ कि वह सुबह-सुबह कहीं बाहर निकाल गई थी। शाम ढल रही थी।
हम लोगों की घबराहट बढ़ गई। आज-कल वह थोड़ी परेशान भी थी। क्योंकि नौकरी के लिए विभिन्न कंपनियाँ आने लगी थी। कैंपस-सेलेक्सन के समय की वजह से थोड़ी घबराई हुई थी। अँधेरा हो चला था। समझ नहीं आ रहा था, से किस से पूछे? कैसे पता करें?
मुझे बताए बिना वह कहीं नहीं जाती थी। बाज़ार जाना हो या सिनेमा, मुझे फोन से जरूर बता देती थी। बार-बार मन में उल्टे-सीधे ख्याल आने लगे। ड़र से मन कांपने लगा। कहीं कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं हो गया। लग रहा था, क्यों उसे पढ़ने के लिए इतना दूर भेज दिया?
सारा दिन ऐसे ही बीत गया था। फोन की घंटी फिर बजी और मुझे लगा पति का फोन होगा। लेकिन इस बार बेटी का फोन था। उसकी आवाज़ सुन कर शांति हुई। मैं उसे डाँटने ही वाली थी कि उसकी उत्साह भरी आवाज़ आई- “ मम्मी, मुझे नौकरी मिल गई”। दरअसल उसे देर रात पता चला कि अगले दिन एक अच्छी कंपनी का टेस्ट और इंटरव्यू है। अगले दिन सुबह एक के बाद दूसरे टेस्ट होते रहे और उसे फोन स्विच आफ रखना पड़ा। जिन लोगों का चयन एक टेस्ट में होता उन्हे अगले टेस्ट और फिर इंटरव्यू के लिए भेजा जाता रहा। लगातार टेस्ट और इंटरव्यू के बीच उसे बात करने का मौका नहीं मिला। उसके कमरे में रहनेवाली उसकी सहेली भी साथ थी। इसलिए उसका फोन भी नहीं लग रहा था।
खुशखबरी सुन कर पूरे दिन का तनाव दूर हो गया। बेटी को उज्ज्वल भविष्य के राह पर अग्रसर होते देख मन ख़ुशी से नाच उठा। तभी मेरे पति ने कहा-“ देखा तुमने, मेरी बेटी कितनी लायक है”।

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रेत के कण ( कविता )

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                क्या रेत के कणों को देख कर क्या

                 यह समझ आता है कि कभी ये

              किसी पर्वत की चोटी पर तने अकडे

                 महा भीमकाय चट्टान होंगे
या कभी

           किसी विशाल चट्टान को देख कर मन

              में यह ख्याल  आता है कि समय की

              मार इसे चूर-चूर कर रेत बना देगी?

                                 नहीं न?

              इतना अहंकार भी किस काम का?

             तने रहो, खड़े रहो पर विनम्रता से।

                   क्योंकि यही जीवन चक्र है।

              जो कभी शीर्ष पर ले जाता है और

             अगले पल धूल-धूसरित कर देता है।

पेड़ और पर्वत के अस्तित्व की कहानी ( पर्यावरण धारित प्ररेरक कविता )

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पहाड़ पर विशाल बरगद का पेड़ हवा में झूम रहा था। वृक्ष लाल पके फलों से लदा था। तभी एक पका फल घबरा कर पेड़ को पुकार उठा। जरा धीरे हिलो। वरना मैं गिर पड़ूँगा। वृक्ष मुस्कुरा कर रह गया।
तभी झुंड के झुंड, हरे पंखों वाले तोते उसी डाल पर आ कर बैठ गए। डाली बड़ी ज़ोरों से लचक गई। फल फिर घबरा कर चिल्ला उठा ‘मुझे बचाओ, मैं नीचे गिर पड़ूँगा’। तभी एक तोते ने डरे-सहमे फल पर चोंच मारा। जिस बात का ड़र था, वही हुआ। बेचारा फल डाल से टूट कर नीचे गिरने लगा। पेड़ को उसने फिर आवाज़ दिया –“ मुझे बचाओ”। पेड़ ने स्वभाविकता से जवाब दिया। “यही जिंदगी है, अब अपने बल पर जीना सीखो”।
फल एक धूप से तपते चट्टान पर गिर कर बोला- “मैं अभी बहुत छोटा हूँ और यह चट्टान बहुत गरम है यहाँ तो मैं सुख कर खत्म हो जाऊंगा। ”। पेड़ ने जवाब दिया- “दरार के बीच की चुटकी भर मिट्टी से दोस्ती करके तो देखो”। वह लुढ़क कर वृहत चट्टान के बीच के दरार में जा छुपा
मौसम बीता, समय बीता। फल के अंदर के बीज़ धीरे-धीरे अंकुरा गए। एक नन्हा पौधा चट्टान पर जड़े पसारते बड़ा हो गया। उसकी लंबी जड़ें चट्ट्नो से लटक गई। जड़ें आगे बढ़ कर मजबूती से मिट्टी में समा गई। अब नन्हा पौधा पूरे शान से वृक्ष बन कर खड़ा था।
एक दिन पुराने बरगद ने आवाज़ दिया- “याद है वह दिन। जब तुम कदम-कदम पर मदद के लिए मुझे आवाज़ देते थे? देखो आज तुम अपने बल पर कितने बड़े और शक्तिशाली हो गए हो। इसलिए डरने के बदले अपने-आप पर विश्वास करना जरूरी है।
नए पेड़ ने हामी भरी और कहा- “हाँ तुम्हारी बात तो सही है। पर क्या तुमने कभी यह सोंचा की मेरे यहाँ उगने से बेचारे चट्टान को इतने बड़े दरार का सामना करना पड़ा”। तभी नीचे से चट्टान की आवाज़ आई – “ नहीं दोस्त, हम सभी का अस्तित्व तो एक दूसरे के बंधा है। हमारे बीच का यह दरार तो पुराना है। तुमने और तुम्हारी जड़ों ने तो हमें बांध कर रखा है। तुमने हमें तपती धूप और बरसते बौछारों से बचाया है। यह पूरा पर्वत ही तुम वृक्षो की वजह से कायम है।
नए पेड़ को पुराने पेड़ की बातों महत्व अब समझ आया। हम भी छोटी-छोटी बातों से घबरा कर औरों से मदद की उम्मीद लगाने लगते हैं। हमें अपने पर विश्वाश करने की आदत बनानी चाहिए।

#Together हमारा साथ ( blog related )

जिंदगी में जब आसानी से कुछ मिलता है। तब हम उसका मूल्य नहीं समझते हैं। बचपन से एक ही परिवार में पले बढ़े बच्चे लड़ते झगड़ते बड़े होते है। छोटी-छोटी बातों में आपस में उलझ जाते है। पर बड़े होने पर जब वे अलग हो जाते है। अपनी-अपनी जिंदगी में सेटल हो जाते है। अलग – अलग शहरों में बस जाते हैं। तब उन का आपस में मिलना-जुलना कठिन हो जाता है। तब पुरानी यादें मूल्यवान लगने लगती है। तब पुराना साथ, पुरानी बातें याद आने लगती हैं।
मेरे घर भी कुछ ऐसा ही हुआ। हम चार लोगों का परिवार है। मैं, मेरे पति और मेरी दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ। जब बेटियाँ छोटी थीं। तब मैं घर और नौकरी में उलझी रहती थी। दोनों बेटियाँ भी अन्य सामान्य बच्चों की तरह फर्माइशें करतीं। आपस के झगड़ों में मुझे भी परेशान करतीं। जब कभी वे ज्यादा परेशान करतीं। तब मैं सोचतीं – कब ये बड़ी होंगी? कब मुझे परेशान करना कम करेंगी।
बचपन में दोनों बेटियाँ एक ही कमरे में रहतीं थीं और एक बड़े बिस्तर पर सोतीं थीं। दोनों हमेशा अपने-अपने कमरे और अलग पलंग की फरमाईश कर परेशान करतीं थी। तब हम दो कमरे के घर में रहते थे। अतः उन्हे अलग कमरे देना संभव नहीं था। बड़ा घर लेना कठिन होगा। मैं बच्चों को यह सब समझाती रहती थी। पर बच्चे तो बच्चे होते हैं। उनकी जिद से मैं परेशान हो जाती थी।
देखते-देखते समय पंख लगा कर उड़ गया। बच्चे बड़े हो गए। बड़ी बेटी पढ़ाई करने बाहर चली गई। पति का तबादला कोलकाता हो गया। वे वहाँ चले गए। छोटी बेटी दसवीं में थी अतः मुझे उसके साथ धनबाद में रुकना पड़ा। ताकि उसकी पढ़ाई और बोर्ड के परीक्षा में बाधा ना आए। हम सभी एक दूसरे की बड़ी कमी मससूस करते थे। पर उपाय क्या था? परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बन गईं थी।
हमने इस कमी को दूर करने के लिए दक्षिण घूमने का कार्यक्रम बनाया। ताकि भीड़-भाड़ और घर से दूर हम चारो कुछ दिन एक साथ बीता सके। कार्यक्रम बन गया। हम सब बड़े खुश थे। इकट्ठे रहने का मौका मिलेगा।
तभी पता चला कि मेरे पति की छुट्टियाँ किसी कारणवश स्थगित कर दी गईं है। उनकी छुट्टियाँ मिलने तक मेरा और छोटी बेटी के स्कूल की छुट्टियाँ लगभग खत्म हो रहीं थी। लगा अब घूमने का कार्यक्रम नहीं बन पाएगा। दोनों बच्चे बड़े मायूस हो गए।
अब जब हम चार लोग तीन शहर में थे तब हमें साथ होने का मोल समझ आ रहा था। अतः हमने अपना कार्यक्रम फिर से सीमित समय के अनुसार बनाया, ताकि कुछ समय तो साथ बिता सकें, और दक्षिण के यात्रा पर गए। यह यात्रा कम दिनों का जरूर था। पर साथ-साथ बिताया यह समय हमारे लिए यादगार बन गया। खास बात यह थी कि जो बच्चे अलग बिस्तर और कमरे के लिए झगड़ते थे। वे बेटियाँ अब साथ सोने के लिए परेशान थीं । वे चाहती थीं कि हम ज्यादा से ज्यादा साथ रहें। चारो एक साथ एक बिस्तर पर सोए और समय बिताएँ।

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