तुम्हें शायद मेरी भी ज़रूरत नहीं !!!!

ऊपर वाले ने दुनिया बनाते-बनाते, उस में थोड़ा राग-रंग डालना चाहा .

बड़े जतन से रंग-बिरंगी, ढेरों रचनाएँ बनाईं.

फिर कला, नृत्य भरे एक ख़ूबसूरत, सौंदर्य बोध वाले मोर को भी रच डाला.

धरा की हरियाली, रिमझिम फुहारें देख मगन मोर नृत्य में डूब गया.

काले कागों….कौओं को बड़ा नागवार गुज़रा यह नया खग .

उन जैसा था, पर बड़ा अलग था.

कागों ने ऊपर वाले को आवाज़ें दी?

यह क्या भेज दिया हमारे बीच? इसकी क्या ज़रूरत थी?

बारिश ना हो तो यह बीमार हो जाता है, नाच बंद कर देता है।

 बस इधर उधर घुमाता अौ चारा चुंगता है.

वह तो तुम सब भी करते हो – उत्तर मिला.

कागों ने कोलाहकल मचाया – नहीं-नहीं, चाहिये।

जहाँ से यह आया है वहीं भेज दो. यहाँ इसकी जगह नहीं है.

तभी काक शिशुअों ने गिरे मयूर पंखों को लगा नृत्य करने का प्रयास किया.

कागों ने काकदृष्टि से एक-दूसरे को देखा अौर बोले –

देखो हमारे बच्चे कुछ कम हैं क्या?

दुनिया के रचयिता मुस्कुराए और बोले –

तुम सब तो स्वयं भगवान बन बैठे हो.

तुम्हें शायद मेरी भी ज़रूरत नहीं.

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