साँसों पर ऐतबार

क्यों करें ऐतबार?

सच को जो झूठ बताए,

शोर मचा झूठ को सच बनाए।

सुन कर अनसुना करे,

ऐसे रिश्ते क्यों निभाएँ?

जाना नहीं उन राहों पर,

जहाँ मिले अपमान बारंबार।

जो बदले मौसम सा हर बार,

क्यों करना उस पर ऐतबार?

ऐतबार

जब अपने महफ़ूज़ आशियाने में,

अप्रिय, अनजाने मेहमानों को

नहीं बुलाते इस ज़माने में।

तब

दिल, रूह, तन और मन के पावन आशियाँ में,

क्यों बिना सोंचे सब को

जगह देंना इस ज़माने में?

नासमझी भरे ऐतबार ज़ख़्म

हीं दिया करते हैं हर ज़माने में।

ऐतबार

यक़ीन और भरोसा टूटने पर,

अपने ऐतबार पर शर्मिंदा ना हों।

कहते हैं,

बार-बार कोई विश्वास तोड़े,

तब उसे जाने दो।

समझ लो,

यह है ईश्वर का संकेत।

क्योंकि

किसी से खिलवाड़ करने वाले से, नियति है खिलवाड़ करती।

यह है ऊपर वाले का नियम।

ऐतबार

लब ना खोलूँ,

अगर ऐतबार हो।

गर ना हो ऐतबार तो ……….

नाहक लबों को क्यों खोलूँ ?