नीलकंठ

जंग लगी कुंजियों से

रिश्तों के सुप्त तालों को

खोलने की कोशिश में

ना जाने कितने नील गरल

निकलते हैं इस सागर से.

इन नील पड़े चोट के निशान

दिखती नही है दुनिया को,

शिव के नीलकंठ की तरह.

पर पीड़ा….दर्द बहुत देती हैं.

21 thoughts on “नीलकंठ

  1. प्रायः दुनिया साफ़ देख लेती है चोट के नीले पड़े निशान बस अनदेखा कर देती है या दर्द सहलाने के बजाय कुरेद कर और बढ़ा देती है |    
    आपकी अन्तः पीड़ा आपके शब्दों में साफ़ झलक रही है |  हम कहाँ शिव हैं कि गरल निगल लें और दर्द भी महसूस ना हो |   महत्वपूर्ण यह है की हम दर्द की वादी में स्वयं को कितने कम समय रखते हैं , कितनी शीघ्रता से उससे बाहर निकल आते हैं |  रही जंग लगी कुंजियों की बात तो जंग लगा  ताला खोलने के लिए ताले और चाबी दोनों में तेल लगाते हैं , यहाँ भी शायद उसी की आवश्यकता है : तेल याने “स्नेह” की |  

    एक लम्बे अंतराल के बाद आप पुनः आई हैं अपने ब्लॉग पर , स्वागत है |

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    1. सच है, देखे को अनदेखा कर चोट पहुँचाने वालों की कमी नहीं. ताले में तेल -अनुभवपूर्ण सुझाव और स्वागत के लिए आभार

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    1. बहुत आभार मनीष जी महादेवी वर्मा की मार्मिक पंक्तियों के लिए और कविता पसंद करने के लिए.

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