बूँदे

क्यों ये बूँदे टूट टूट कर

जमीं की आग़ोश में समातीं हैं?

कौन हैं आज जो ऊँचाइयों

से नीचे आता हैं?

क्या खिंचता हैं इन्हें ?

क्यों ये आकाश का साथ छोड़

बिखर जातीं हैं धरा के दामन में…..

Picture Courtsey: Zatoichi.

25 thoughts on “बूँदे

  1. sabse pahle khubsurat tasweer ke ke liye dhanyawad apka. shayad shunya se anant aur anant se shunya ka safar hai ye shrishti tabhi to kabhi ham upar aur kabhi upar se neeche aate hain……..pataa nahi ye kaun sa safar hai………..dharti par girkar bunden bilin ho jaati hain aur phir yahi bunde ek ek kar baadal kaa rup lekar ambar men najar aati hai……shayad shrishti ka yahi chakra hai.

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    1. Yah tasveer mere ek mitr ne uphaar swarup bhejaa tha. Mujhe yah picture aur amaltaash Phool dono pasand hai.
      Kavita ki barikiyo ki sundar carcha kiya hai. Bund ki yaatraa aise hi hai.
      Bahut shukriya.

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  2. अद्भुत… बूंदों के जीवन.. अस्तित्व…. पर बहुत सुंदर प्रश्नात्मक लिखा है आपने, रेखा सहाय जी!! यह कौतुहल ही अप्रतिम है|

    मानो आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों को छोड़कर धरा से मिलने उसकी उष्णता को शांत करने… और तृप्त करने को…. वेग से आती है वर्षा… की बूंदें…. जिनका स्पर्श पाकर खिल उठता है धरा का भी वजूद… क्योंकि धरा में सहअस्तित्व सा विलीन होकर… बूंद करती है पूर्ण समर्पण!!!
    धरा के असीमित धैर्य को नमन…. जिसने वर्ष भर किया… वर्षा काल की प्रतीक्षा…. और अन्ततः मिलन हुआ… दो विपरीत ध्रुव पर रहने वाले दो तत्वों का!!

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    1. बहुत ख़ूब ! आपने मेरी रचना के अनकहे भाव को सुंदर शब्दों में ढाल दिया हैं.
      बहुत धन्यवाद !!

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  3. कुछ रचनाओं से सहज ही तारतम्य जुड़ जाता है… और त्वरित नवीन रचना सृजित हो जाती है| आपकी रचनायें भी उन्हीं में से हैं| आपके जीवंत लेखन के लिए आपको बहुत बहुत बधाई रेखा सहाय जी…

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  4. कुछ रचनायें इतनी जीवंत होती हैं कि वे सहज ही प्रतिक्रिया रुप में अन्य रचनाओं के सृजन से अपना तारतम्य जोड़ लेती हैं| आपका रचनात्मक लेखन उसी कोटि का है| आपके प्रशंसनीय शब्दों के लिए कोटिशः आभार|

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  5. बूँद की यात्रा के नाम से तो तुरंत हरिऔध जी की अतिसुंदर रचना याद आ जाती है , क्लास IX में पढ़ी थी
    एक बूँद

    ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
    थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
    सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
    आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

    देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
    मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
    या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
    चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

    बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
    वह समुन्दर ओर आई अनमनी।
    एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
    वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

    लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
    जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
    किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
    बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।

    – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध

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    1. अति सुंदर !! यह प्रेरणा देती हुई कविता हमने भी स्कूल में पढ़ी थी.
      फिर से याद दिलाने के लिए बहुत धन्यवाद .

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