ज़िंदगी के रंग -71

कभी कभी समझ नहीं आती ,

क्यों है ज़िंदगी इतनी उलझन भरी ?

जितनी सुलझाओ उतनी

ही उलझती जाती है .

रंग बिरंगे उलझे धागों की तरह

कहीं गाँठे कहीं उलझने हीं उलझने

और टूटने का डर …..

क्या यही है ज़िंदगी ?

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