रोज़ हँसाती- रुलाती ,
भगाती – दौड़ती ,
परेशानियों में रूबरू कराती
ज़िंदगी से परेशान हो कर
आख़िरकार पूछ ही लिया –
छः माही , सालाना परीक्षाओं
की तो आदत सी है .
पर तुमने तो हद ही कर दिया .
जब देखो परखती जाँचती रहती हो…..
यह सिलसिला कब रोकोगी?
ज़िंदगी की खिलखिलाहट
झंकार सी खनक उठी बोली –
फिर ज़िन्दगी हीं क्या होगी ?
इन्हीं से तो बनी हो
तुम और तुम्हारी ज़िंदगी.