पद्मावत कहें या पदमावती क्या फर्क पड़ता है ?
हम सब शोर कर रहे है सिर्फ
मृत इठिहास और उसके प्रमाणिकता की .
कोई क्यों नहीं सोचता इसके वर्तमान व भविष्य प्रभावों को ?
नारी अग्निदाह उत्सव का पुनर्जन्म तो नहीं है यह?
कुछ दशको पहले तक रूपकंवर की दर्दनाक सती
कथा त्याग कही जा रही थी .
बड़ी कठिनाईयों से हमारी आँखे खुलीं .
कहीं पद्मावती की सती कथा फिर इस आग
को लौ दिखा भड़का ना दे .
तब के जौहर की बात अौर थी।
कहने वाले कहते हैं –
अब – वैधव्य के बाद सती होने के
लिये मनोवैज्ञानिक दबाव डाले जाते थे .
चिता अग्नि के चारों ओर सजे मेले…..दर्शकोँ के
भीड़ -कोलाहल में सती की हृदयविदारक करूंण क्रंदन
दव जाती थी
या
क्या दबा दी जाती थी?
उनकें चिता पलायन प्रयास को पास खड़े कुछ लोग
विफल कर देते थे – लम्बे बाँस के सहारे उसे
लपलपाती अग्नि शिखा में वापस ढकेल कर
एक जीवित जलती नारी मंदिर की देवी बन जाती .
अगर यह स्वर्ग गमन … पूज्यनीय दैवी पथ है
तब मात्र नारी के लिये हीं क्यों ?
स्मिता सहाय के विचारों से प्रेरित.
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