अद्येति नामाहं नाम्नीम् इमां कन्यां……तुभ्यं अहं सम्प्रददे।।
कन्या के हाथ वर के हाथों में सौंपनें के लिये,
ना जाने क्यों बनी यह परम्परा?
कन्या को दान क्यों करें?
जन्म… पालन-पोषण कर कन्या किसी और को क्यों दें ?
विवाह के बाद अपनी हीं क्यों ना रहे?
कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा से चले?
अगर पिता ना रहें ता माँ का कन्या दान का हक भी चला जाता है।
गर यह महादान है, तब मददगार
ता-उम्र अपने एहसान तले क्यों हैं दबाते?
है किसी के पास इनका सही, अर्थपूर्ण व तार्किक जवाब?
जिंदगी के आईने में कई बेहद अपनों के कटु व्यवहार
की परछाईं ने बाध्य कर दिया प्रश्नों के लिये?
वरना तो बने बनाये स्टीरियोटाइप जिंदगी
जीते हीं रहते हैं हम सब।