मिलना

कभी आ भी जाना

बस वैसे ही जैसे

परिंदे आते है आंगन में

या अचानक आ जाता है

कोई झोंका ठंडी हवा का

जैसे कभी आती है सुगंध

पड़ोसी की रसोई से

आना जैसे बच्चा आ जाता

है बगीचे में गेंद लेने

या आती है गिलहरी पूरे

हक़ से मुंडेर पर

जब आओ तो दरवाजे

पर घंटी मत बजाना

पुकारना मुझे नाम लेकर

मुझसे समय लेकर भी मत आना

हाँ अपना समय साथ लाना

फिर दोनों समय को जोड़

बनाएंगे एक झूला

अतीत और भविष्य के बीच

उस झूले पर जब बतियाएंगे

तो शब्द वैसे ही उतरेंगे

जैसे कागज़ पर उतरते है

कविता बनके

और जब लौटोतो थोड़ा

मुझे ले जाना साथ

थोड़ा खुद को छोड़े जाना

फिर वापस आने के लिए

खुद को एक-दूसरे से पाने

के लिए.

गुलज़ार ~~

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