ज़िंदगी के रंग -59

यह दुनिया निराली है .

राग -रंग, माया- मिथ्या

के बीच ,

कभी लगता है , सभी अपने है .

चारो ओर मेले ही मेले है .

कभी लगता है –

इस भरी दुनिया में तनहा है .

सब अकेले ही अकेले है .

10 thoughts on “ज़िंदगी के रंग -59

  1. कहने को तो सभी अपने लगते हैं रेखा जी लेकिन मैंने तो अपने अनुभव में यही देखा है कि अकेलापन ही वास्तविकता है । हम भीड़ में भी तनहा हैं । आपने वो (फ़िल्मी) ग़ज़ल तो सुनी ही होगी – ‘आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं, एक में भी तनहा थे, सौ में भी अकेले हैं’ । और रही बात अपनेपन की तो – ‘कसमें वादे प्यार वफ़ा, सब बातें हैं बातों का क्या; कोई किसी का नहीं, ये झूठे नाते हैं, नातों का क्या’ । वैसे मैं ये भी मानता हूँ कि ख़यालात तजुरबों की बुनियाद पर बनते हैं । जिसने सचमुच अपनों को अपने आसपास पाया हो, उसके विचार निश्चय ही भिन्न होंगे, सकारात्मक होंगे । बाकी अकेला या दुकेला तो इनसान होता है, दुनिया तो मेलों की है और मेले हमेशा चलते हैं, चलते आए हैं, चलते रहेंगे भी, कोई इनसान रहे या न रहे । अपनों के बीच रहने वालों को भी तो यही कहना है – ‘ये ज़िंदगी के मेले, दुनिया में कम न होंगे, अफ़सोस हम न होंगे’ ।

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    1. भीड़ में अकेलापन ज़िंदगी के कई रंगो में से एक कटु रंग है .
      हमेशा की तरह आपके गीत , ग़ज़ल मेरी कविता की सुंदर व्याख्या कर रहे है . बहुत आभार .

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