#Together हमारा साथ ( blog related )

जिंदगी में जब आसानी से कुछ मिलता है। तब हम उसका मूल्य नहीं समझते हैं। बचपन से एक ही परिवार में पले बढ़े बच्चे लड़ते झगड़ते बड़े होते है। छोटी-छोटी बातों में आपस में उलझ जाते है। पर बड़े होने पर जब वे अलग हो जाते है। अपनी-अपनी जिंदगी में सेटल हो जाते है। अलग – अलग शहरों में बस जाते हैं। तब उन का आपस में मिलना-जुलना कठिन हो जाता है। तब पुरानी यादें मूल्यवान लगने लगती है। तब पुराना साथ, पुरानी बातें याद आने लगती हैं।
मेरे घर भी कुछ ऐसा ही हुआ। हम चार लोगों का परिवार है। मैं, मेरे पति और मेरी दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ। जब बेटियाँ छोटी थीं। तब मैं घर और नौकरी में उलझी रहती थी। दोनों बेटियाँ भी अन्य सामान्य बच्चों की तरह फर्माइशें करतीं। आपस के झगड़ों में मुझे भी परेशान करतीं। जब कभी वे ज्यादा परेशान करतीं। तब मैं सोचतीं – कब ये बड़ी होंगी? कब मुझे परेशान करना कम करेंगी।
बचपन में दोनों बेटियाँ एक ही कमरे में रहतीं थीं और एक बड़े बिस्तर पर सोतीं थीं। दोनों हमेशा अपने-अपने कमरे और अलग पलंग की फरमाईश कर परेशान करतीं थी। तब हम दो कमरे के घर में रहते थे। अतः उन्हे अलग कमरे देना संभव नहीं था। बड़ा घर लेना कठिन होगा। मैं बच्चों को यह सब समझाती रहती थी। पर बच्चे तो बच्चे होते हैं। उनकी जिद से मैं परेशान हो जाती थी।
देखते-देखते समय पंख लगा कर उड़ गया। बच्चे बड़े हो गए। बड़ी बेटी पढ़ाई करने बाहर चली गई। पति का तबादला कोलकाता हो गया। वे वहाँ चले गए। छोटी बेटी दसवीं में थी अतः मुझे उसके साथ धनबाद में रुकना पड़ा। ताकि उसकी पढ़ाई और बोर्ड के परीक्षा में बाधा ना आए। हम सभी एक दूसरे की बड़ी कमी मससूस करते थे। पर उपाय क्या था? परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बन गईं थी।
हमने इस कमी को दूर करने के लिए दक्षिण घूमने का कार्यक्रम बनाया। ताकि भीड़-भाड़ और घर से दूर हम चारो कुछ दिन एक साथ बीता सके। कार्यक्रम बन गया। हम सब बड़े खुश थे। इकट्ठे रहने का मौका मिलेगा।
तभी पता चला कि मेरे पति की छुट्टियाँ किसी कारणवश स्थगित कर दी गईं है। उनकी छुट्टियाँ मिलने तक मेरा और छोटी बेटी के स्कूल की छुट्टियाँ लगभग खत्म हो रहीं थी। लगा अब घूमने का कार्यक्रम नहीं बन पाएगा। दोनों बच्चे बड़े मायूस हो गए।
अब जब हम चार लोग तीन शहर में थे तब हमें साथ होने का मोल समझ आ रहा था। अतः हमने अपना कार्यक्रम फिर से सीमित समय के अनुसार बनाया, ताकि कुछ समय तो साथ बिता सकें, और दक्षिण के यात्रा पर गए। यह यात्रा कम दिनों का जरूर था। पर साथ-साथ बिताया यह समय हमारे लिए यादगार बन गया। खास बात यह थी कि जो बच्चे अलग बिस्तर और कमरे के लिए झगड़ते थे। वे बेटियाँ अब साथ सोने के लिए परेशान थीं । वे चाहती थीं कि हम ज्यादा से ज्यादा साथ रहें। चारो एक साथ एक बिस्तर पर सोए और समय बिताएँ।

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#ChooseToStart मेरा नया फोन ( blog related )

मेरे हाथों में है चमचमाता नया स्मार्ट फोन। मैं हैरानी से उसे निहार रहीं हूँ। मन में खयाल आ रहें हैं- “क्या यह सचमुच मुझे स्मार्ट बना देगा”? पर यह क्या? मैं तो उसमें ही उलझ कर रह गई हूँ।

इसके बटन जरा सा छु जाने पर फोन कहीं का कहीं लग जाता है। फोन देख कर जितनी खुशी हुई। उसे काम में लाने में उतनी हीं उलझन हो रही है। मुझे अपना पुराना फोन याद आने लगा। उस पर हाथ बैठा था। मुझे उसका अभ्यास था। अतः काम करना आसान लगता था।

मुझे पुराने दिन याद आने लगे। फोन की दुनिया में बड़ी तेज़ी से बदलाव आए हैं। कुछ दशकों पहले तक कुछ ही घरों में फोन हुआ करते थे। वह भी तार से जुटे, डायल करने वाले फोन होते थे। दूसरे शहर फोन करना हो तो कॉल बुक करना पड़ता था। घंटो इंतजार के बाद बात होती थी। कुछ समय बाद सभी शहरों के कोड नंबर आ गए। जिसकी सहायता से फोन लगता था। पर यह भी आज के जैसा सुविधाजनक नहीं था। यात्रा के दौरान तो फोन करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।

हाल के वर्षों में फोन की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। विज्ञान का एक अद्भुत चमत्कार सामने आया। मोबाइल फोन उपलब्ध हो गए। वह भी ऐसा कि मुट्ठी में समा जाये। ना लंबी तार, ना डॉयल करने की मुसीबत। जहां चाहो , जब चाहो, जिससे चाहो बातें कर सकते है। सारी दुनियाँ ही सिमट कर करीब लगने लगी।

पर हाँ, जब सामन्य मोबाईल फोन हाथ में आया तब भी वही उलझन हुई। जो आज हो रही है। तब भी लगा था कि इसे काम में लाना सीखना होगा। पर ये फोन इतने सहज-सरल होते है कि सीखने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी। इस बात को याद कर मुझे बड़ी तस्सली हुई। चलो इसे भी मैं सीख लूँगी। पर फिर भी अपने स्मार्ट फोन को काम में लाने में घबराहट हो रही थी- कही मैं गलत तरीके से चला कर इस बिगाड़ ना दूँ। फिर मन में ख्याल आया- कही मुझमें परिवर्तन से बचने की प्रवृती का भाव (Change resistance) तो नहीं आ रहा है? नहीं-नहीं, यह तो बड़ी अफसोस की बात होगी।

मेरा स्मार्ट फोन से पहला परिचय तब का है। जब कुछ समय पहले मेरी छोटी बेटी नें इंजीनियरिंग कॉलेज में अपना प्रोजेक्ट स्मार्ट फोन एप पर आधारित बनाया था। साथ ही पहला पुरस्कार भी पाया था। तभी से मेरे मन में इस फोन की लालसा थी। आज जब यह फोन मेरे हाथों में है। तब ऐसे घबराना ठीक नहीं है।

मैंने अपने आप से कहा- कोशिश करनी होगी। मैं इसे कर सकती हूँ। मैंने प्यार से अपने स्मार्ट फोन को हाथों में उठाया। और यह क्या? यह तो पहले के फोन से भी सरल- सहज है। इसे आज के समय में दोस्ताना फोन या युजर फ्रेंडली कहेंगे।

अब समझ आया इसे स्मार्ट फोन क्यों कहते हैं। इससे बैठे-बैठे बातें करो या खरीदारी। अपने मेल देखो या व्हाट्स एप पर ग्रुप बना कर पूरे परिवार और मित्रों के करीब आ जाओ। । कोई भी एप डाउन लोड कर लो, और बैठे-बिठाये पूरी दुनिया अपने पास ले आओ। ब्लॉग लिखो या पढ़ो। यह तो हर काम को आसान कर देता है।

अब तो हाल यह है कि सोते-जागते मैं अपना स्मार्ट फोन अपने करीब रखतीं हूँ। मैं सचमुच स्मार्ट बन गई हूँ।

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सीमेंट की एक बोरी (यात्रा अनुभव )

जब हम किसी काम के लिए सीमेंट की बोरी लाते हैं। तब कभी उसे इतिहास के बारे में नहीं सोचते हैं। पर इसका भी एक लंबा इतिहास होता है। सीमेंट एक लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार होता है। भारत विश्व में सबसे अधिक सीमेंट बनाने वाले देशों की सूची में दूसरे स्थान पर है।

अभी हाल में मुझे एक पूरी तरह से स्वचालित सिमेंट प्लांट देखने का अवसर मिला। यह प्लांट है – टॉपसेम सीमेंट या मेघालय सीमेंट लिमिटेड। स्वचालित तरीके से सीमेंट बनते देखना अपने आप में अद्भुत अनुभव है।

यह प्लांट असम के गौहाटी शहर में है। यह शहर से थोड़ा हट कर स्थित है। टॉपसेम सीमेंट प्लांट में हम लोग 10 फरवरी 2015 की सुबह लगभग 9:30 में पहुँचें। वहाँ के वी पी श्री राजेश रंजन ने पूरी फ़ैक्टरी दिखाई। उन्होने बड़े अच्छे तरीके से विस्तार से सीमेंट बनने की प्रक्रिया बताई। साथ ही मशीनों की कार्य प्रणाली बताई। सीमेंट बनने की पूरी कहानी बड़ी रोचक लगी।

यह सीमेंट प्लांट काफी बड़े दायरे में फैला है। यहाँ विशालकाय मशीनें लगी हैं। अलग-अलग आकार और नाप की मशीने लगी हैं । जो लगातार, बिना रुके काम कर रहतीं हैं । यहाँ के कामगारों, कर्मचारियों तथा अधिकारियों के रहने की अच्छी व्यवस्था है। साथ ही मेहमानो के लिए गेस्ट-हाऊस की भी व्यवस्था है। यह फैक्टरी पंद्रह वर्ष से सीमेंट उत्पादन कार्य में लगी है।

सीमेंट पर्वतों से लाये क्लिंकर, एश/ राख़ आदि मिला कर बनते हैं। इन सब को अलग-अलग स्थानों से मंगाया जाता है। निर्धारित मात्रा में इन सब को बड़ी-बड़ी मशीनों में पिसा और मिलाया जाता है। कच्चे माल चूना पत्थर आदि खनन के द्वारा प्राय पहाड़ों से प्राप्त किया जाता है। वहाँ से इन्हे ट्रकों के द्वारा सीमेंट प्लांट में लाया जाता। इन

(Look Up Stories ) मेरा घर ( blog related)

जिंदगी की गाड़ी ठीक-ठाक चल रही थी। बच्चे पढ़ाई में व्यस्त थे। हम पति और पत्नी अपने-अपने नौकरी में खुश थे। पति का जहां भी तबादला होता। वहीं किराए का घर ले कर आशियाना बसा लेते थे। चिड़ियों की तरह तिनका-तिनका सजाने लगते थे।

जिंदगी अच्छी कट रही थी। सिनेमा देखना, बाहर घूमने जाना, गोलगप्पे और चाट खाना, बच्चों के रिजल्ट निकलने पर उनके स्कूल जाना जैसी बातों में मगन थे हम सब। बच्चों की खिलखिलाहटों के साथ हम भी हँसते। उन्हें एक-एक क्लास ऊपर जाते देखना सुहाना लगता। बड़ी बेटी इंजीनियरिंग कॉलेज में पहुँच गई थी। छोटी बेटी भी ऊँची कक्षा में चली गई थी। पढ़ाई का दवाब और खर्च दोनों बढ़ गए थे। बच्चों की हर उपलब्धि मन में खुशियाँ भर देती थी। ये सब खुशियाँ ही इतनी बड़ी लगती कि इससे ज्यादा कुछ चाहत हीं नहीं होती थी। ना हमारे ज़्यादा अरमान थे, ना कोई लंबा चौड़ा सपना था। हम अपने छोटे-छोटे सपनों को पूरा होते देख कर खुश थे।

ऐसे में एक दिन बड़ी बेटी ने पूछा – “मम्मी, हमारा अपना घर कौन सा है? हमें भी तो कहीं अपना घर लेना चाहिए”। मैं और मेरे पति चौंक पड़े। हमारा घर? यह तो हमने सोचा ही नहीं था। किराये के घर को हीं अपना मान लेने की आदत पड़ गई थी।
मन में एक बड़ा सपना जाग उठा। एक अपने घर की चाहत होने लगी। पर जब हमने इस बारे में सोचना शुरू किया। तब लगा कि हमारे आय में एक अच्छे घर या फ्लैट की गुंजाइश नहीं है। बच्चों की पढ़ाई में काफी खर्च हो रहा था। घर के और ढेरों खर्च थे। कुछ पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी थीं।

काफी सोंच-विचार के बाद हमने बैंक लोन के लिए बात किया। दो कमरे का खूबसूरत प्यारा सा फ्लैट पसंद भी आ गया। पर हर महीने कटने वाला बैंक इन्स्टाल्मेंट हमारे बजट से कुछ ज्यादा हो रहा था। घर के खर्चों में काफी कटौती के बाद भी कठिनाई हो रही थी। कभी-कभी मेरे पति झल्ला उठते। उन्हें लगता कि मैं कुछ ज्यादा बड़ी उम्मीदें पालने लगी हूँ। अपना घर लेना हमारे बूते से बाहर है। तभी मेरे पति की तरक्की हो गई और तनख़्वाह में भी इजाफ़ा हुआ। इससे हमारी समस्या खत्म तो नहीं हुई। पर आसानी जरूर हो गई। हमने फ्लैट बुक कर लिया।

कुछ समय पैसे की थोड़ी खिचातानी और घर के खर्चों में परेशानी जरूर हुई। पर जल्दी ही मालूम हुआ की घर के ऋण पर मेरे पति को  आयकर  में कुछ छूट मिलेगा  और हमारी  बैंक इन्स्टाल्मेंट की समस्या लगभग  खत्म हो गई। कुछ समय में हमारा फ्लैट मिल गया। गृह प्रवेश की पूजा के दिन आँखों में खुशी के आँसू भर आए। लगा आज हमारा बहुत बड़ा सपना पूरा हो गया।
इस खुशी में एक और बहुत बड़ी खुशी यह थी कि हमारी बड़ी बेटी की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी और उसे वहीं नौकरी मिल गई थी। जहाँ हमारा फ्लैट है। छोटी बेटी का भी वहीं इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया। दोनों बहने अपने नए घर में रहने लगीं। हम दोनों भी अक्सर वहाँ छुट्टियां बिताने लगे। अपने घर में रह कर हम सभी कॉ बड़ी आत्मसंतुष्टि होती।

बड़ी बेटी की शादी के बाद हमने घर किराये पर दे दिया है। सच बताऊँ तो, हमारा घर आज हमारा एक कमाऊ सदस्य है। उससे आने वाला किराया हमारे बहुत काम आता है। जब भी अपना घर देखती हूँ। मन में बहुत बड़ी उपलब्धि का एहसास होता है। जल्दी ही पति के रिटायरमेंट के बाद हम अपने सपनों के घर में जाने वालें हैं। मेरे पति अक्सर कहते है- “ यह घर तुम्हारे सपने और सकारात्मक सोंच का नतिज़ा है।

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#StartANewLife जीवन के एक नए अध्याय की शुरुआत (blog related ) )

     तब उन्नीस वर्ष की थी मैं । अभी टीन एज के आखरी वर्ष में थी। बड़ी बेफ़िक्री और मस्ती के दिन थे। आई. ए. परीक्षा के रीजल्ट आ गए थे। बड़े अच्छे अंकों से मैं पास हुई थी। अतः बी. ए. में मनचाहे विषय – मनोविज्ञान में प्रवेश मिल गया था। खुशी-खुशी कालेज में बी. ए. में पढ़ रही थी।

तभी अचानक मेरी शादी तय हो गई। शादी के नाम से इतनी खुश थी, जैसे जीवन का सबसे अनमोल खजाना मिल गया हो। नए कपड़े, गहने, सहेलियों की छेड़-छाड़ में सारी खुशियाँ समाई थी। बड़ी-बड़ी आँखों में ढेरो सपने थे।

नई जिंदगी के नए सपनों के साथ ससुराल पहुँची। पर यह क्या? वहाँ तो जीवन का अर्थ ही कुछ और था। बहू यानि काम करने की मशीन। सुबह से रात तक बीसियों लोगों का भोजन बनाना, चाय पिलाना जैसे कामों में दिन कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। इसके बाद भी दहेज पर छींटाकशी और उलाहनों का अंत नहीं था। इस जीवन की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। दिन भर किसी की एक मीठी बोली के लिए तरस जाती। इस समय मुझे समझ आया कि मैं माँ बनने वाली हूँ।

तभी बी. ए. के परीक्षा की तिथि निकल गई। पढ़ाई बिलकुल ठप्प थी। कालेज छूट गया था। पर मन के किसी कोने में यह ख्याल था कि मुझे किसी भी हाल में परीक्षा देनी है। परीक्षा के समय माईके जाने का अवसर मिला। बड़ी राहत मिली। लगा माँ को सारी बातें बता कर कुछ उपाय निकलेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहाँ से कुछ दिनों के बाद इस आश्वासन के साथ वापस ससुराल भेज दिया गया – घबराओ नहीं। कुछ दिनो में सब अपने आप ठीक हो जाएगा। पर आज तक क्या अपने आप कभी कुछ ठीक हुआ है?

बेटी के जन्म के बाद ससुराल आने पर मुसीबतें और बढ़ गई। साथ में काम भी बढ़ गया। बेटी होने का ताना भी मिलने लगा। घर के कामों में फर्माइशों की लिस्ट बढ़ती गई। यह शायद बेटी के होने की सज़ा भी थी।

मन में अक्सर खयाल आता कि क्या यही मेरी पहचान है? क्या यही मेरा जीवन है? एक बँधुआ मजदूर की तरह खटना और ताने सुनते रहना। रात में यह सब सोंच कर नींद नहीं आती। तब खिड़की के पास खड़े-खड़े ना जाने कितनी रातें बिताईं। आँखों से आँसू बहते रहते।
तभी मेरे बी. ए. का रिजल्ट आ गया। खुशी मिश्रित हैरानी हुई। मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से पास हुई थी।

तब मैंने अपने नए जीवन के लिए एक निर्णय लिया। एक नई शुरुआत की ओर कदम बढ़ाने का निश्चय किया और मैंने एम. ए. के प्रवेश का फार्म भर दिया। यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान में सीमित सीटें थी। पर अच्छे अंक होने की वजह से प्रवेश मिल गया। घर के विरोध, काम के बोझ, उलाहनों और नन्ही सी बिटिया के देख-भाल का बोझ तो था। पर कहतें है – दिल से कुछ करने की चाहत हो तो ईश्वर भी मदद करतें है। उसी ईश्वर के आशीर्वाद स्वरूप मैंने एम. ए. किया। फिर पी. एच. डी. किया। आज मैं दो प्यारी बेटियों की माँ, एक सफल गृहणी और कालेज शिक्षिका हूँ। मेरे उस एक निर्णय ने मेरी जिंदगी बदल दी। 

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शिलांग या पूर्व का स्कॉटलैंड – (यात्रा वृतांत और दुर्घटना )

7 फरवरी 2015
मैं शिलांग पहले भी जा चुकी हूँ। यह मेघालय की राजधानी है। शिलांग एक खूबसूरत पहाड़ी स्थान है। अतः जब दूसरी बार जाने का अवसर मिला। तब मैं तुरंत तैयार हो गई।
शिलांग जाने के लिए रेल मार्ग नहीं है। यहाँ हवाई जहाज़ की कम ही उड़ानें जाती हैं। सड़क मार्ग से यहाँ जाना सबसे सुविधाजनक है। सात फरवरी को दोपहर लगभग एक बजे मैं और मेरे पति हवाई जहाज़ से गौहाटी पहुँचें। वहाँ से कार से शिलांग के लिए निकले। यह दूरी लगभग 120 किलोमीटर है। हमलोगों ने सोचा दोपहर का भोजन मार्ग में किसी होटल या ढाबा में खा लेंगे। शाम तक शिलांग पहुँच जाएँगे। तब थोड़ी देर वहाँ बाज़ार में घूमेंगे।
शिलांग जाने की सड़क पूरी तरह से पहाड़ी मार्ग है। एक तरफ पहाड़ और दूसरी ओर घाटियां और हरे-भरे पेड़ पौधे बड़े सुंदर लग रहे थे। हम मंत्र-मुग्ध प्रकृतिक सौन्दर्य को निहार रहे थे। पर तभी हमारी कार रुक गई। पता चला, आगे पूरी सड़क जाम थी। दोपहर से शाम और फिर रात हो गई। पर आवागमन ठप्प था। किसी तरह कार थोड़ी–थोड़ी खिसक रही थी। कुछ पुलिसवाले और मिलिट्री की गाडियाँ आई। तब मार्ग खुलने की आस जागी। काफी देर के बाद रात नौ बजे रास्ता खुला।
अभी थोड़ी दूर ही पहुँच थे। तभी कुछ लोग हमारी कार रोक कर मदद मांगने लगे। उनके साथ एक घायल युवक था। जिसे आगे पुलिस थाने या अस्पताल तक ले जाने का अनुरोध कर रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसे में क्या करें। अन्य गाड़ियों की तरह आगे बढ़ जाएँ या मदद करें।? खैर, हमने उस युवक को कार में बैठा लिया। वह होश में था। पर बदहवाश था। इस लिए ठीक से कुछ बता नहीं पा रहा था। सौभाग्यवश थोड़ी दूर पर कुछ पुलिसवाले मिल गए। उनके साथ एम्बुलेन्स भी थी। हमने उस युवक को वहाँ उतारा। तब पता चला कि वह पुलिस का जवान था। उस दिन वहाँ पर भीड़ और पुलिस में भयंकर झड़प हुई थी। कुछ वाहनें भी जला दी गई थी। इसी से वजह से सड़क जाम थी। उस उपद्रव में यह जवान घायल हो अकेला सड़क के किनारे पड़ा रह गया था। वर्दी के ऊपर उस जवान ने काली जैकेट पहन रखी थी। अतः वह पुलिस का जवान है, यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
वहाँ से आगे बढ़ने पर एक आत्म संतुष्टि थी, किसी अनजाने को मदद करने का। पर शिलांग जल्दी पहुँचने की चिंता भी थी। हम रात 10 बजे शिलांग पहुँचे। हमने 2-3 घंटे के रास्ते को नौ घंटे में तय किया था। हमारा उस दिन का सारा कार्यक्रम बेकार हो गया। मन में खयाल आया-
                                    होई है सोई जो राम रची राखा.

दूसरे दिन सुबह-सुबह हम तैयार हो कर घूमने निकाल गए। पर्वत, हरीयाली और शीतल समीर ने मन प्रसन्न कर दिया। यहाँ की पर्वत माला बड़ी सुंदर है। यहाँ के लोग शांत स्वभाव के हैं। शिलांग और आस-पास के ग्रामीण परिवेश बड़े साफ-सुथरे हैं। वहाँ की सफाई देख कर मन खुश हो गया।
एशिया के सबसे साफ सुथरे गाँव का श्रेय वहाँ के एक ग्राम मावियननिंग ग्राम को मिला है। जिसे समय की कमी की वजह से हम देख नहीं पाये।
हम सभी एलीफेंट झरना / फ़ाल पहुँचें। यह एक खूबसूरत पहाड़ी झरना है। शिलांग पीक वहाँ की सबसे ऊंची पर्वत चोटी है। जहाँ से शिलांग का बड़ा खूबसूरत नज़ारा दिखता है। राह में और भी अनेक खूबसूरत झरने नज़र आये । यहाँ का गोल्फ कोर्स विश्व प्रसिद्ध है।
चेरापुंजी विश्व की सबसे ज्यादा बारिश वाली जगह है। इस स्थान का वास्तविक नाम सोहरा है। सोहरा बड़ी साफ-सुथरी जगह है। यहाँ के इको पार्क से पहाड़, और घाटियाँ का नज़ारा खूबसूरत लगता है। यहाँ की एक और लाजवाब चीज़ है- पेडों की सजीव जड़ों से बना झूलता पुल। यहाँ की ख़ासी जन जातियों के लोग अपने अद्भुत योग्यता का इस्तेमाल करते हुए इस तरह के पुल बना लेते हैं। जब किसी नदी के ऊपर यह पुल बनाना होता है, तब ये सुपारी के पेड़ के लंबे-लंबे तनों को बीच से चीर कर नदी के ऊपर इस पार से उस पार तक रख देते है। यहाँ के रबर के पेड़ों की नई पतली जड़ों को उस दिशा में बढ़ने देते है। यहाँ का मौसम और हमेशा होने वाली बारिश इन जड़ों को सुपारी के तनों पर बढ्ने में मदद करती है। बढ़ते-बढ़ते दूसरे किनारे पर जा कर ये जड़ें मिट्टी में जड़ें जमा लेतीं हैं। धीरे-धीरे ये जड़ें मजबूत हो जाती है। इस तरह ये जड़ें मजबूत पुलों का रूप का ले लेती है। इन पर से आसानी से नदी पार किया जा सकता है। ये पुल बहुत मजबूत होतें हैं। इस तरह के पुल मानव मस्तिष्क की अद्भुत देन है। पूरे विश्व में ये पुल अनोखे हैं। ऐसे पुल और कहीं नहीं पाए जाते हैं।
मवासमाई गुफाएँ प्रकृतिक रूप से बनी गुफा हैं। यहाँ पानी के कटाव ने कुदरती तौर पर बड़े सुंदर आकार बना दियेँ हैं। एक ओर से अंदर जाने का रास्ता है। यह गुफा काफी लंबी है। बाहर निकालने का रास्ता दूसरी ओर है। इसमें अद्भुत आकृतियाँ हैं। varsha काल में इन गुफाओं में जाना संभव नहीं होता है।
शिलांग से 15 किलोमीटर दूर यहाँ का ऊमीयम लेक है। यह ऊमीउम नदी पर बनाया गया लेक है। यह बड़ापानी के नाम से भी प्रसिद्ध है। लेक के किनारे ढेरो पाइन के वृक्ष हैं। साथ ही नेहरू पार्क है। इसे शिलांग- गौहाटी के सड़क मार्ग यानि उच्च राजपथ से बड़ी सुविधा से देखा जा सकता है। यह बड़ा खुबसूरत लेक है।
भारत के इस उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में प्रायः मातृसत्ता व्यवस्था है। यहाँ अनेक जनजातियाँ है। जिनमें जायदाद की हकदार पुत्री होती है। यहाँ ख़ासी और जनटिय जनजातियों की जनसंख्या सर्वाधिक हैं। यहाँ की जनजातियाँ प्रायः आदिशक्ति शिव या देवी के उपासक हैं।

चेरापुंजी ( खूबसूरत यात्रा वृतांत )

शिलांग के पास, चेरापुंजी विश्व की सबसे ज्यादा बारिश वाली जगह है। इस स्थान का वास्तविक नाम सोहरा है। सोहरा बड़ी साफ-सुथरी जगह है। यहाँ के इको पार्क से पहाड़, और घाटियाँ का नज़ारा खूबसूरत लगता है।

यहाँ की एक और लाजवाब चीज़ है- पेडों की सजीव जड़ों से बना झूलता पुल। यहाँ की ख़ासी जन जातियों के लोग अपने अद्भुत योग्यता का इस्तेमाल करते हुए इस तरह के पुल बना लेते हैं। जब किसी नदी के ऊपर यह पुल बनाना होता है, तब ये सुपारी के पेड़ के लंबे-लंबे तनों को बीच से चीर कर नदी के ऊपर इस पार से उस पार तक रख देते है। यहाँ के रबर के पेड़ों की नई पतली जड़ों को उस दिशा में बढ़ने देते है। यहाँ का मौसम और हमेशा होने वाली बारिश इन जड़ों को सुपारी के तनों पर बढ्ने में मदद करती है। बढ़ते-बढ़ते दूसरे किनारे पर जा कर ये जड़ें मिट्टी में जड़ें जमा लेतीं हैं। धीरे-धीरे ये जड़ें मजबूत हो जाती है। इस तरह ये जड़ें मजबूत पुलों का रूप का ले लेती है।

इन पर से आसानी से नदी पार किया जा सकता है। ये पुल बहुत मजबूत होतें हैं। इस तरह के पुल मानव मस्तिष्क की अद्भुत देन है। पूरे विश्व में ये पुल अनोखे हैं। ऐसे पुल और कहीं नहीं पाए जाते हैं।

कोलकाता की यादें १ – वह रिक्शावाला ( यात्रा अनुभव )

मैं और मेरे पति अधर कोलकाता के न्यू मार्केट में घूम रहे थे। बाज़ार में भीड़ और चहल-पहल थी। बगल में था होग मार्केट। कपड़े, जूते, चप्पल, बैग और ढेरो समान से बाज़ार भरा था। यह बाज़ार ऐसा है, जहाँ पैदल घुमने का अपना मज़ा है। पर काफी चलने के बाद थकान हो गई। तब मेरे पति अधर नें रिक्शा लेने का सुझाव दिया और एक रिक्शेवाले से बातें करने लगे।
कोलकाता के ऊँचे और बड़े-बड़े चक्कों वाले रिक्शे मुझे देखने में अच्छे लगते हैं। पर किसी व्यक्ति द्वारा पैदल रिक्शा खीचना मुझे अच्छा नहीं लगता है। अतः मैंने रिक्शे पर बैठने से मना कर दिया। रिक्शेवाला मेरी इन्कार सुन कर मायूस हो गया। उसे लगा कि मैं पैसे की मोल-मोलाई कर रही हूँ। उसने मुझसे कहा- “ दीदी, पैसे कुछ कम दे देना। मैंने बताया कि पैसे की बात नहीं है। किसी व्यक्ति द्वारा पैदल रिक्शा खीचंना मुझे अच्छा नहीं लगता । तब रिक्शे वाले ने ऐसी बात कही, जो मेरे दिल को छु गई और मैं चुपचाप रिक्शे पर बैठ गई।
उम्रदराज, दुबला-पतला, सफ़ेद बालोंवाले रिक्शा चालक ने कहा- “ यह तो मेरा रोज़ का काम है। हमेशा से मैंने यही काम किया है। अब मैं दूसरा कोई काम कर भी नहीं सकता। यही मेरी कमाई का साधन है। आप बैठेंगी तो मेरी कुछ कमाई हो जाएगी। वरना कोई दूसरी सवारी का इंतज़ार करना होगा।पैसे तो मुझे कमाने होंगे।
                    पता नहीं कब हमारे देश से गरीबी कम होगी? लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर कब प्राप्त होगें?

कोलकाता की यादें ३ – कोहिनूर चाय ( यात्रा अनुभव )

मुझे मालूम हुआ न्यू मार्केट में चाय पत्ती की बड़ी अच्छी दुकान “कोहिनूर” है। बंगाल की दार्जिलिंग चाय बड़ी मशहूर है और मेरी पसंदीदा भी। दुकान ढूँढते हुए हम हौग मार्केट के पीछे की सड़क पर पहुँचें। वहाँ चाय पत्ती की एक दुकान तो दिखी। पर उसका नाम कहीं लिखा नज़र नहीं आया। पूछने पर मालूम हुआ कि इस दुकान का नाम कोहिनूर है।
चाय की प्याली को होठों के लगाने के पहले हम शायद हीं उसके इतिहास या नाम के बारे में सोंचते है। पर सच्चाई यह है कि इनकी भी अपनी कहानी होती है और इनका भी अपना एक नाम होता है। काली, सफ़ेद , हरी और ऊलोंग (चीन की) चाय पत्तियाँ अलग-अलग होतीं हैं।
चाय पत्तियों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि चाय पत्तियाँ जिस स्थान या स्टेट में उपजाई जाती हैं। उस नाम से ही जानी जाती हैं। जैसे तीस्ता घाटी क्षेत्र की पत्तियाँ तीस्ता चाय पत्ती और मकईबारी स्टेट की पत्ती मकाईबारी चाय पत्ती के नाम से बाज़ार में मिलती है। दार्जिलिंग में ऐसे ही ढेरो टी स्टेट है। अलग-अलग जगहों कि पत्तियों के रंग, स्वाद और खुशबू में अंतर होता है। स्वाद और खुशबू के आधार पर चाय पत्तियों का मूल्य तय होता है।
कोहिनूर दुकान से हमने थोड़ा गोल दाने वाली पत्तियाँ ली। ये चाय को गहरा रंग देती है। साथ में थोड़ा लीफ़ लिया। ऐसी पत्ती हल्का रंग देती है पर इनकी खुशबू बड़ी अच्छी होती है। वापस लौटने पर इन से चाय बना कर पीने पर दिल खुश हो गया। साथ ही आफसोस हुआ कि मैंने पत्तियाँ ज्यादा क्यों नहीं लीं। कोहिनूर दुकान वास्तव में अच्छी दुकान है। ।

कोलकाता की यादें २- कस्तुरी रेस्टोरेन्ट (यात्रा अनुभव )

 
कोलकाता जा कर मुझे वहाँ की बंगाली तरीके से बनी मछ्ली खाने की बड़ी इक्छा थी। हमारे एक परिचित ने कस्तुरी रेस्टोरेन्ट का पता बताया। यह न्यू मार्केट में फ्री स्कूल स्ट्रीट में है।
सीढ़ियों से ऊपर पहुँच कर लंबा सा हाल नज़र आया। वहाँ का रख-रखाव भी मामूली था। बड़ा साधारण सा दिखनेवाले रेस्टोरेन्ट देख दुविधा होने लगी। कहीं हमने यहाँ आ कर गलती तो नहीं किया। हमने मेनू देखना चाहा। वहाँ का मेनू बड़ा नायाब था। दो ट्रे में ढेर सारे मछली के बने व्यंजन कटोरों में सजे थे। जो व्यंजन पसंद हो उन कटोरों को उठा लेना था।
उस रेस्टोरेन्ट में सिर्फ मछली के व्यंजन मिलते है। चिंगड़ी, रेहू, भेटकी, कतला, पोमफ्रेट, हिलसा / इलिस मछली के अलावा कई और मछलियों के व्यंजन भी उपलब्ध थे। साथ में सादा चावल था। सभी व्यंजन स्वाद के लिहाज़ से दूसरे से भिन्न थे। मैंने पहली बार मछली किसी साग या सब्जी के साथ बना देखा था। भोजन का स्वाद लाजवाब था। टमाटर की मीठी चटनी और सेवई भी स्वादिष्ट थी।
रेस्टोरेन्ट देख कर हुई दुविधा व्यर्थ निकला। वहाँ भोजन कर बंगाल के स्वादिष्ट भोजन का भरपूर लुत्फ़ मिला। तब खयाल आया – “रूप से ज्यादा गुण मायने रखता है।“ कस्तुरी वास्तव में कस्तुरी खुशबू की तरह सुवासित थी- “भोजन के सुगंध से।“