दिया तुमने दर्द औ तकलीफ़।
ज़रूर कुछ सिखा रहे हो,
कुछ बता रहे हो।
डिग्री नहीं, सच्चे सबक़ नज़रों
के सामने ला रहे हो।
जानते हैं गिरने ना दोगे।
हाथ पकड़ कर चलना सीखा रहे हो।

दिया तुमने दर्द औ तकलीफ़।
ज़रूर कुछ सिखा रहे हो,
कुछ बता रहे हो।
डिग्री नहीं, सच्चे सबक़ नज़रों
के सामने ला रहे हो।
जानते हैं गिरने ना दोगे।
हाथ पकड़ कर चलना सीखा रहे हो।

तराशते रहें ख़्वाबों को,
कतरते रहे अरमानों को.
काटते-छाँटते रहें ख़्वाहिशों को.
जब अक़्स पूरा हुआ,
मुकम्मल हुईं तमन्नाएँ,
साथ और हाथ छूट चुका था.
सच है …..
सभी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,
किसी को जमीं,
किसी को आसमाँ नहीं मिलता.
ज़िंदगी के अनुभव, दुःख-सुख,
पीड़ा, ख़ुशियाँ व्यर्थ नहीं जातीं हैं.
देखा है हमने.
हाथ के क़लम से कुछ ना भी लिखना हो सफ़ेद काग़ज़ पर.
तब भी,
कभी कभी अनमने हो यूँ हीं पन्ने पर क़लम घसीटते,
बेआकार, बेमतलब सी लकीरें बदल जाती हैं
मन के अंदर से बह निकली स्याही की बूँदों में,
भाव अलंकारों से जड़ी कविता बन.
जिसमें अपना हीं प्रतिबिंब,
अपनी हीं परछाईं झिलमिलाती है.
किस से शिकायत करें?
सिर पटका दर-ए-ख़ुदा पर.
ईश्वर के आगे .
कहीं सुनवाई नहीं हुई .
ना जाने कहाँ भूल हुई ?
भूलना चाह कर भी भूल नहीं सकते.
कहते हैं नियति बदली नहीं जा सकती.
पर हमें तो था वहम …..
हाथ पकड़ कर जगा लेने का
वहम, भ्रम और ग़रूर

Painting courtesy- Lily Sahay

forwarded

नजरे झुकाई, हाथों को जोङा
अौर
झुक गये ऊपर वाले की बंदगी में।
पर दुनिया का गुरुर तो देखो ,
सामने वाले ने
मान लिया अपने को भगवान !
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