रात की दहलीज़ पर

दहलीज़ पर जलता दीया,

पाथेय बन राहें

उनके लिए रौशन है करता,

जिन्हें वापस आना हो।

ज़ो लौटें हीं ना

उनके लिए क्यों दीया जलाना

रात की दहलीज़ पर?

शाम की दहलीज़ पे !!

हमेशा की तरह,

आज भी शाम की दहलीज़ पे,

आफ़ताब आसमान में सिंदूर फैलाए

इंतज़ार करता रहा चाँद का और तारों की बारात का.

क्या वह जानता नहीं

उसके तक़दीर में इंतज़ार और ढलना लिखा है?