चिड़ियों की चहक सहर…सवेरा… ले कर आती है.
नीड़ को लौटते परिंदे शाम को ख़ुशनुमा बनाते हैं.
ढलते सूरज से रंग उधार लिए सिंदूरी शाम चुपके से ढल जाती.
फिर निकल आता है शाम का सितारा.
पर यादों की वह भीगी शाम उधार हीं रह जाती है,
भीगीं आँखों के साथ.
चिड़ियों की चहक सहर…सवेरा… ले कर आती है.
नीड़ को लौटते परिंदे शाम को ख़ुशनुमा बनाते हैं.
ढलते सूरज से रंग उधार लिए सिंदूरी शाम चुपके से ढल जाती.
फिर निकल आता है शाम का सितारा.
पर यादों की वह भीगी शाम उधार हीं रह जाती है,
भीगीं आँखों के साथ.
आज सुबह बॉलकोनी में बैठ कर चिड़ियों की मीठा कलरव सुनाई दिया
आस-पास शोर कोलाहल नहीं.
यह खो जाता था हर दिन हम सब के बनाए शोर में.
आसमान कुछ ज़्यादा नील लगा .
धुआँ-धूल के मटमैलापन से मुक्त .
हवा- फ़िज़ा हल्की और सुहावनी लगी. पेट्रोल-डीज़ल के गंध से आजाद.
दुनिया बड़ी बदली-बदली सहज-सुहावनी, स्वाभाविक लगी.
बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी करने और आगे बढ़ने का बड़ा मोल चुका रहें हैं हम सब,
यह समझ आया.

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