
जिस रौशनी को
हम खोज रहें हैं।
वह तो है हमारे अंदर।
हम सब हैं,
चमकते-दमकते सितारें
इस ख़ूबसूरत काया
के अंदर।

जिस रौशनी को
हम खोज रहें हैं।
वह तो है हमारे अंदर।
हम सब हैं,
चमकते-दमकते सितारें
इस ख़ूबसूरत काया
के अंदर।
जीवन में खुश रहने और सार्थकता ढूंढने में क्या अंतर हैं?
क्या दोनों साथ-साथ चल सकतें हैं?
अर्थपूर्णता…सार्थकता के खोज में अतीत, वर्तमान और भविष्य शामिल होतें हैं।
इसके लिये सही-गलत सीखना पङता है
खुशियों के लिये कोई समय, सही-गलत, कोई शर्त नही होती।
खुशियाँ अपने अंदर होतौं हैं, किसी से मांगनी नहीं पङती है।
सार्थकता जुड़ा है – कर्तव्य, नैतिकता से।
सार्थकता और अर्थ खोजने में कभी-कभी खुशियाँ पीछे छूट जाती है।
पर जीवन से संतुष्टि के लिये दोनों जरुरी हैं।
ज़िंदगी के अनुभव, दुःख-सुख,
पीड़ा, ख़ुशियाँ व्यर्थ नहीं जातीं हैं.
देखा है हमने.
हाथ के क़लम से कुछ ना भी लिखना हो सफ़ेद काग़ज़ पर.
तब भी,
कभी कभी अनमने हो यूँ हीं पन्ने पर क़लम घसीटते,
बेआकार, बेमतलब सी लकीरें बदल जाती हैं
मन के अंदर से बह निकली स्याही की बूँदों में,
भाव अलंकारों से जड़ी कविता बन.
जिसमें अपना हीं प्रतिबिंब,
अपनी हीं परछाईं झिलमिलाती है.

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