जुबाँ

कभी कैक्टस, कभी पत्थर

बन जाती है नरम मुलायम जीभ।

कभी नर्म कभी गर्म, कभी ज़ख्म पर

मरहम सा सुकून भरा फाहा।

कभी घाव दे जाती है नाज़ुक जीभ।

कभी रिश्ते बनाती, कभी बिगाड़ती है।

कभी गुनाहगार कभी बेगुनाह निर्दोष बन जाती है।

शायद इसलिए ज़ुबान की दहलीज़ पर

लबों के पहरे होते हैं।

शायद इसलिए जुबाँ

कई दीवारों के पहरे में क़ैद रहती है।

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।

औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।। ~~ कबीर