जीना सीखते सीखते
बरसो लग जाते है .
और जीना सीखते समझते
जाने का वक़्त आ जाता है.
फिर भी कहने वाले कहते है –
” तुम्हें जीना नहीं आया ‘

जीना सीखते सीखते
बरसो लग जाते है .
और जीना सीखते समझते
जाने का वक़्त आ जाता है.
फिर भी कहने वाले कहते है –
” तुम्हें जीना नहीं आया ‘

आह।क्या खूब कहा।
लोग कहते हैं मैं जवान हो गया,
लोग कहते हैं मैं बुड्ढा हो गया,
फिर कहते हैं मैं बीमार हूँ,
फिर
आओ आकर मिल लो लगता है मैं मरनेवाला हूँ
और फिर दुनियाँ छोड़ चले जाते हैं।
आखिर तक हम ये नही समझ पाते कि मैं कौन हूँ।
ये शरीर या कुछ और।
अब इस तन को दफन कर दो,जला दो या चील्ह कौवो को खिला दो
क्या फर्क पड़ता है।
सच जीवन गुजर जाती है मगर जीना नहीं आता।
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बहुत खूब !!!!!thank you 🙂
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रेखा जी, जो यह कहते हैं कि जीना नही आया वो जीते ही कहां हैं। उनके लिए जीना और मरना एक बराबर है। जो वास्तव मे जीते हैं वो जीने की शिकायत नही करते। कहा है कि
ज़िन्दगी जिन्दादिली का दूसरा नाम है।
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं।
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बड़ी अच्छी बात आपने कही . हाँ शिकवा शिकायत करने वालों को बस बहाना चाहिये.
सुंदर पंक्तियों के लिए आभार .
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शुक्रिया
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