शाम

शाम की शाम

ढलती हँस रही है ,

ज़िंदगी गुज़रती ,

हँस रही है .

पर क्या है

जो अधूरा है ?

क्या तृष्णा है ?

दिल की बेचैनी

क्या खोज रही है ?

7 thoughts on “शाम

  1. अच्छी हैं ये पंक्तियां जिनकी गहराई को केवल आप ही समझ सकती हैं क्योंकि इन्हें रचने वाला आप ही का मन है । मुझे तो पुरानी फ़िल्म ‘इम्तिहान’ का यह गीत याद आ गया है : ‘रोज़ शाम आती थी मगर ऐसी न थी, रोज़-रोज़ घटा छाती थी मगर ऐसी न थी’ ।

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    1. यह कविता काफ़ी दिनो से लिख कर ड्राफ़्ट में पड़ा था , इसका अंत क्या लिखूँ इस दुविधा में . आज भूलवश पोस्ट हो गया.
      ज़िंदगी से वैराग सम्भव नहीं क्योंकि यह बहुत सी जिम्मदारियों में डूबी होती है .
      इम्तिहान फ़िल्म मुझे बड़ी पसंद है और यह मेरा पसंदीदा गीत है . इसे याद दिलाने के लिए शुक्रिया जितेंद्र जी.

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