शाम की शाम
ढलती हँस रही है ,
ज़िंदगी गुज़रती ,
हँस रही है .
पर क्या है
जो अधूरा है ?
क्या तृष्णा है ?
दिल की बेचैनी
क्या खोज रही है ?

शाम की शाम
ढलती हँस रही है ,
ज़िंदगी गुज़रती ,
हँस रही है .
पर क्या है
जो अधूरा है ?
क्या तृष्णा है ?
दिल की बेचैनी
क्या खोज रही है ?

अच्छी हैं ये पंक्तियां जिनकी गहराई को केवल आप ही समझ सकती हैं क्योंकि इन्हें रचने वाला आप ही का मन है । मुझे तो पुरानी फ़िल्म ‘इम्तिहान’ का यह गीत याद आ गया है : ‘रोज़ शाम आती थी मगर ऐसी न थी, रोज़-रोज़ घटा छाती थी मगर ऐसी न थी’ ।
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यह कविता काफ़ी दिनो से लिख कर ड्राफ़्ट में पड़ा था , इसका अंत क्या लिखूँ इस दुविधा में . आज भूलवश पोस्ट हो गया.
ज़िंदगी से वैराग सम्भव नहीं क्योंकि यह बहुत सी जिम्मदारियों में डूबी होती है .
इम्तिहान फ़िल्म मुझे बड़ी पसंद है और यह मेरा पसंदीदा गीत है . इसे याद दिलाने के लिए शुक्रिया जितेंद्र जी.
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Beautiful and we are yet searching for that happiness which is inborn in us. Lovely words, Rekha.
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Exactly Kamal. Thank you 😊
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Welcome Rekha.
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Bahot hi khub💐💐💐
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Dhanyvaad Ravindra.
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