ज़िंदगी के रंग – 56

कहते हैं –

इन्सान एक कारण से

अकेला हो जाता है.

अपनों को छोड जब

ग़ैरों से सलाह लेता है

लेकिन

तब क्या करें ?

जब अपने हीं बेगाने

हो जायें ?

8 thoughts on “ज़िंदगी के रंग – 56

  1. बिलकुल सटीक बात है यह रेखा जी । जीवन का कटु सत्य जिसे मैंने (और मुझ जैसे ना जाने कितनों ने) स्वयं भोगा है । ग़ैरों से ठगे जाने की नौबत तो तब ही आती है जब अपने मुँह फेर लेते हैं । एक शेर है : ‘ग़ैर तक़लीफ अब न फ़रमाएं, दोस्त काफ़ी हैं दुश्मनी के लिए’ ।

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    1. आपकी बात बिलकुल सही है। मेरे जीवन का अनुभव भी यही बताता है। आप अपनी बातों को गीतों शेर-शायरीयोँ के माध्यम से बङे अच्छे से व्यक्त करते हैं।

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