रंगीली और रंजन की जोड़ी नयनाभिराम थे। रंगीली के सौंदर्य में कशिश थी। बड़े-बड़े खूबसूरत नयन, दमकता चेहरा, लंबी – छरहरी देहयिष्टि। लगता था विधाता ने बड़े मनोयोग से गढ़ा था। पर रंजन का व्यक्तित्व उससे भी प्रभावशाली था। लम्बी-चौड़ी, बलशाली काया, काली आँखों में एक अनोखा दर्प , उनके गोद में होती उनकी परी सी सुंदर पुत्री एंजले। अभिजात्यता की अनोखी छाप पूरे परिवार पर थी। उनकी आंग्ल भाषा पर जबर्दस्त पकड़ थी। दोनों के दोनों ऐसी अँग्रेजी बोलते थे। जैसे यह उनकी मातृ भाषा हो। पर जब उतनी ही शुद्ध संस्कृत बोलना- पढ़ना शुरू करते। तब देखने और सुनने वाले हक्के बक्के रह जाते।
उनके कम उम्र और सात्विक रहन-सहन देख लोग अक्सर सोंच में पड़ जाते। इतनी कम उम्र का यह राजा-रानी सा जोड़ा इस आश्रम में क्या कर रहा है? जहाँ वृद्धों और परिवार के अवांछनीय परित्याक्तों की भीड़ है। अनेकों धनी, गण्यमान्य और विदेशी शिष्यों की भीड़ इस जोड़े के निष्ठा से प्रभावित हो आश्रम से जुटने लगी थी । आश्रम के विदेशी ब्रांचो में गुरु महाराज इन दोनों को अक्सर भेजते रहते थे। गुरु महाराज को मालूम था कि ये विदेशों में अपनी प्रभावशाली अँग्रेजी से लोगों तक बखूबी भारतीय दर्शन को पहुँचा और बता सकते हैं। सचमुच शांती की खोज में भटकते विदेशी भक्तों की झड़ी आश्रम में लग गई थी।
दोनों को देख कर लगता जैसे कोई खूबसूरत ग्रीक सौंदर्य के देवी-देवता की जोड़ी हो। बड़ी मेहनत और लगन से दोनों मंदिर का काम करते रहते। उनका मंदिर और गुरु महाराज के प्रति अद्भुत और अनुकरणीय श्रद्धा देख अक्सर गुरु महाराज भी बोल पड़ते –‘ दोनों ने देव योनि में जन्म लिया है। इन पर कान्हा की विशेष कृपा है। इनका जन्मों-जन्म का साथ है।“
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रंजन के पिता थे नगर के सम्मानीय वणिक और अथाह धन के मालिक। अनेक बड़े शहरों में उनके बड़े-बड़े होटल और मकान थे। ढेरो बसें और ट्रक यहाँ से वहाँ सामान और सवारी ढोते थे। जिसकी आड़ में उनका मादक पदार्थों और ड्रग्स का काम भी सुचारु और निर्बाध्य चलता रहता। अपने काले व्यवसाय को अबाध्य रूप से चलाने के लिए शहर के आला अधिकारियों और पुलिस वर्ग से उन्होने दोस्ताना संबंध बना रखे थे। धीरे-धीरे अपने एकलौते पुत्र को भी अपने जैसा व्यवसायपटु बनाने का प्रयास उन्होंने शुरू कर दिया था।
उस दिन शहर में नए पदास्थापित उच्च पुलिस पदाधिकारी के यहाँ उपहार की टोकरियाँ ले जाने का काम उन्होने रंजन को सौपा था। तभी, लगभग आठ- दस वर्ष पहले रंगीली और रंजन पहली बार मिले थे। रंजन ने जैसे हीं उनके ऊँचे द्वार के अंदर अपनी चमकती नई लाल कार बढाई। तभी नौसिखिया, नवयौवना कार चालक, पुलिसपुत्री कहीं जाने के लिए बाहर निकल रही थी। नकचढ़ी रंगीली ने रंजन की नई स्पोर्ट्स कार को पिता के पुलीसिया गाड़ी से रगड़ लगाते हुए आगे बढ़ा लिया था। रंजन का क्रोध भी दुर्वासा से कम नहीं था। पर धक्का मारने वाली के सौंदर्य ने उसके कार के साथ उसके दिल पर भी छाप छोड़ दिया था।
अब बिना पिता के कहे वह गाहे-बगाहे उपहारों के साथ रंगीली के घर पहुँच जाता था। अगर रंगीली से सामना हो जाता। तब रंजन मुस्कुरा कर उससे पुछता – “ आज मेरी कार में धक्का नहीं मारेंगी? रंगीली तिरछी नज़र से उसे देखती, खिलखिलाती हुई निकल जाती। रंजन को लगता जैसे आज उसका जीवन सफल हो गया।
रंजन के पिता ने शायद माजरा भाँप लिया था। पर उन्हें इससे कोई ऐतराज नहीं था। न हिंग लगे ना फिटकिरी और रंग चोखा। इसी बहाने पुत्र व्यवसाय पर ध्यान तो देने लगा। उन्हें सिर्फ पत्नी की ओर से चिंता थी। जो वैरागी बनी हर वक्त पूजा-पाठ, आश्रम और गुरु में व्यस्त रहती। अक्सर घर में झुंड के झुंड साधु – संत कीर्तन करते रहते। कभी नवरात्री का नौ दिन अखंड कीर्तन चलता । कभी राम और कृष्ण का जन्मदिन मनता रहता। सभी किरतनिया दूध, फल, मेवा, फलहारी घृत पकवान और नए वस्त्र पाते रहते। घर शुद्ध घी, कपूर, धूप, हवन और सुगंधित अगरबतियों के खुशबू से तरबतर रहता। अखंड भंडारा का द्वार सभी के लिए खुला रहता।
रंजन के पिता को पत्नी का यह तामझाम पसंद नहीं था। पर वे एक होनहार व्यवसाई की तरह इस में से भी अपना फायदा निकाल लेते थे और सम्मानीय अतिथियों को आमंत्रित करने के इस सुअवसर का भरपूर फ़ायदा उठाते थे। ऐसे ही अवसरों पर रंगीली का परिवार भी आमंत्रित होने लगा। गुरु महाराज के सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित रंगीली के परिवार ने भी उनसे दीक्षा ले ली। अब रंजन और रंगीली की अक्सर भेंट होने लगी। जिससे दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गई। अब रंजन के छेड़ने पर रंगीली हँस कर कहती – “ सब तो ठीक है, पर तुम्हारी यह पुजारिन, निरामिष माँ मुझे अपने घर की बहू कभी नहीं बनने देगी।“
पर हुआ इसका उल्टा। हर दिन अपराधियों की चोरी पकड़ने वाले पिता ने रंगीली और रंजन के इस रास-लीला को तत्काल पकड लिया। अपनी 14-15 वर्ष की नासमझ पुत्री की हरकत उन्हें नागवार गुजरी। उन्होंने भी अपना पुलिसवाला दाव-पेंच आजमाया। नतीजन, अचानक उनके तबादले का ऑर्डर आया। सामान बंधा और रातों – रात वे परिवार के साथ दूसरे शहर चले गए। जैसा अक्सर इस उम्र की प्रेम कथा के साथ होता है, वैसे ही इस कमसिन तोता-मैना की अधूरी प्रेम कहानी के साथ भी हुआ। बुद्धिमान पिता ने इस कहानी पर पूर्णविराम लगा दिया।
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20-21 वर्ष की रंगीली के पिता ने बड़े जतन से होनहार और योग्य दामाद की खोज शुरू की। सबसे पहले वे पहुँचे गुरु महाराज के पास। गुरु महाराज ने रंगीली के जन्म की जानकारी मांगी और जल्दी ही उसकी कुंडली बनाने का आश्वासन दिया। कुंडली बन कर आई। उच्चपद और उच्चकुल वरों के यहाँ हल्दी-अक्षत लगी कुंडली और सुंदर पुत्री की तस्वीरें, अथाह दहेज के आश्वासन के साथ जाने लगीं। पर ना-जाने क्यों कहीं बात हीं नही बन रही थी।
दुखी हो कर वे फिर गुरु आश्रम पहुँचे। उन्हें अपनी सारी व्यथा बताई। गुरु महाराज ने व्यथित और चिंतित पुत्रिजनक के माथे पर अनगिनत चिंता की लकीरें देखीं। तब सांत्वना देते हुए बताया कि उनकी पुत्री की कुंडली के अष्टम घर के भयंकर मांगलिक दोष है। शनि भी लग्न में हैं। सारे ग्रह कुंडली में ऐसे स्थापित हैं कि राहू और केतु के अंदर हैं। अर्थात कालसर्प दोष भी है।
पुलिसिया दावपेंच में पारंगत रंगीली के पिता कुंडली ज्ञान में शून्य थे। अतः उन्होंने गुरु महाराज के चरण पकड़ कर कुछ उपाय जानना चाहा। जीवन भर रुपए की महिमा से हर काम निकालने वाले दुखित पिता ने यहाँ भी ईश्वर को चढ़ावा पहुँचा कर काम निकालना चाहा। गुरु महाराज ने कुपित नज़र से देख कर कहा- “ईश्वर को सिर्फ चढ़ावा से नहीं खुश किया जा सकता है।“ चिंतित पिता ने गुरु महाराज के सामने रुपयों की गड्डियों का ढेर रख दिया। नए निर्माणाधीन मंदिर का पूर्ण व्यय वहन करने का वचन दे डाला और अनुरोध किया कि पुत्री के त्रुटीपुर्ण कुंडली का भी वैसे ही आमूलचूल परिवर्तन कर दें, जैसे वे अक्सर अपराधियों के फाइलों में हेरफेर करते अौर उन्हें बेदाग, कानून की पकड़ से बाहर निकाल देते हैं।
गुरु महाराज ने करुण दृष्टि से उन्हें ऐसे देखा, जैसे माँ, आग की ओर हाथ बढ़ाते अपने अबोध और नासमझ संतान को देखती है। फिर विद्रुप भरी मुस्कान के साथ उन पर नज़र डाली और कहा – “देखिये वत्स, मैं ऐसे काम नहीं करता हूँ। आपकी मनोकामना पूर्ण करनेवाले अनेकों ज्ञानी पंडित मिल जाएँगे। पर कुछ ही समय बाद जब आपकी राजदुलारी सफ़ेद साड़ी में आपके पास वापस लौट आएगी। तब क्या उसका वैधव्यपूर्ण जिंदगी आपकी अंतरात्मा को नहीं कचोटेगी?
रंगीली के पिता जैसे नींद से जाग उठे। अपनी नासमझी की माफी मांगते हुए वह कुटिल, कठोर और उच्च ओहदा के अभिमान में डूबा पिता, गुरु महाराज के चरणों में लोट गया। वे आँखों में आँसू भर कर उपाय की याचना करने लगे। गुरु जी ने मृदुल-मधुर स्वर में बताया कि सबसे अच्छा होगा, कुंडली मिला कर विवाह किया जाये। पुत्री के सौभाग्यशाली और सुखी जीवन के लिए यही सबसे महत्वपूर्ण है। पद, ओहदा, मान सम्मान जैसी बातों से ज्यादा अहमियत रखती है पुत्री का अखंड सौभाग्य।
गुरु महाराज ने उन्हें एक उपयुक्त वर के बारे में भी बताया। जिससे उनकी पुत्री की कुंडली का अच्छा मिलान हो रहा था। वह वर था रंजन। परिवार जाना पहचाना था। ऊपर से गुरु महाराज की आज्ञा भी थी। किसी तरह की शंका की गुंजाईश नहीं थी। पर अभी भी उच्चपद आसीन दामाद अभिलाषी पिता, बेटी के बारे में सशंकित थे। पता नही उनकी ऊँचे पसंदवाली, नखड़ाही पुत्री, जो प्रत्येक भावी योग्य वारों में मीनमेख निकालते रहती थी। उसे व्यवसायी रंजन और उसका अतिधार्मिक परिवार पसंद आयेगा या नहीं? पहले के नासमझ उम्र की प्रेम लीला की बात अलग थी।स्वयं उन्हें भी किसी उच्च पदासीन, उच्च शिक्षित दामाद की बड़ी आकांक्षा थी।
तभी गुरु महाराज ने उनकी रही-सही चिंता भी दूर कर दी। गुरु महाराज ने उनसे कहा –“ मुझे लगता है, रंगीली और रंजन का विवाह, उनका प्रारब्ध है। अतः मैं उन दोनों से स्वयं बात करना चाहता हूँ। आगे ईश्वर इच्छा। अगले दिन सुबह शुभ पुष्य नक्षत्र के समय भावी वर वधू गुरु महाराज के समक्ष आए। एकांत कक्ष में मंत्रणा आरंभ हुई। गुरु महाराज ने बताया कि उनकी दिव्य दृष्टि से उन्हें संकेत मिल रहें हैं कि रंगीली और रंजन एक दूसरे के लिए बने हैं। दोनों का जन्मों – जन्म का बंधन है। फिर उन्हों ने अर्ध खुले नयनों से दोनों को ऐसे देखा जैसे ध्यान में डूबे हों। फिर अचानक उन पर प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी – ‘ बच्चों क्या तुम्हारा कभी एक दूसरे की ओर ध्यान नहीं गया? तुम दोनों को आपसी प्रेम का आभास नहीं हुआ? तुम्हे तो ईश्वर ने मिलाया है। हाँ, कुंडली के कुछ दोषों को दूर करने के लिए किसी मंदिर में कार सेवा करने की जरूरत है।
रंगीली और रंजन को अपनी पुराना प्रणय याद आ गया। सचमुच ईश्वर किसी प्रयोजन से बारंबार दोनों को आमने –सामने ला रहें हैं क्या? दोनों गुरु महिमा से अभिभूत हो गए। तुरंत उनके चारणों में झुक मौन सहमती दे दी। दोनों के परिवार में खुशियों की लहर दौड़ गई। तत्काल वहीं के वहीं गुरु महाराज के छत्रछाया में दोनों की सगाई करा दी गई।
कुंडली के क्रूर ग्रह, राहू और केतू की शांती के लिए गुरु जी ने सुझाव दिया – “शिवरात्री के दिन किसी शिव मंदिर में रंगीली और रंजन से काल सर्प पूजान करवाना होगा। आंध्र प्रदेश के श्री कालहस्ती मंदिर, या भगवान शिव के बारह ज्योतृलिंगों में कहीं ही इस पुजन को कराया जा सकता है।“
आँखें बंद कर थोड़े देर के मौन के बाद गुरु जी ने नेत्र खोले। सभी को अपनी ओर देखता पा कर उनके चेहरे पर मधुर मुस्कान छा गई। हँस कर उन्हों ने पुनः कहा – आप लोग चिंतित ना हों। ईश्वर तो हर जगह विद्यमान है। आप किसी भी मंदिर में यह पूजा करवा सकते है। चाहें तो यहाँ भी पूजा हो सकती है। यह मंदिर भी आपका हीं है। यहाँ तो मैं स्वयं सर्वोत्तम विधि से पूजा करवा दूंगा।“ मंदिर में भोग का समय हो रहा था। गुरु महाराज उठ कर अपने पूजा कार्य में व्यस्त हो गए। रंगीली और रंजन का परिवार एक साथ माथा से माथा मिला कर काल सर्प पूजा कहाँ हो इसकी मंत्रणा करने लगे।
दोनों नव सगाई जोड़ा बड़े आम्र वृक्ष के ओट में अपने पुराने बचकाने प्रेम की याद में डूब गया। हमेशा मौन की चादर में लिपटी रहनेवाली रंजन की माँ ने पहली बार मुँह खोला- “ देखिये, गुरु महाराज हमलोगों के शुभचिंतक है। उन्हें किसी प्रकार का लालच नहीं है। वर्ना वे हमें अन्य मंदिरों के बारे में क्यों बताते? मेरा विचार है, पूजा इस मंदिर में गुरु जी से करवाना उचित होगा। बड़े-बड़े मंदिरों में पुजारी कम समय में आधे-अधूरे विधान से पूजा करवा देंगे और हम समझ भी नहीं सकेंगे।“
नई समधिन के सौंदर्य पर रीझे रंगीली के रसिक पिता बड़े देर से उनसे बातें करने का अवसर खोज रहे थे। इस स्वर्ण अवसर का उन्होंने तत्काल लाभ उठाया और तुरंत अपनी सहमती दे दी। गुरु जी की शालीनता और निस्वार्थता से सभी अभिभूत हो गए। फिर तो बड़ी तेज़ी से घटनाक्रम ठोस रूप लेता गया। विवाह आश्रम के मंदिर में हुआ। उस के बाद नव युगल जोड़े ने अपना मधुयामिनी अर्थात हनीमून भी आश्रम में ही मनाया।
दोनों परिवारों की विपुल धन राशी के समुचित उपयोग का ध्यान रखते हुए नव विवाहित जोड़े की लंबी विदेश मधुयामिनी यात्रा हुई। लगभग एक महीने बाद दोनों उपहारों से लदे घर वापस लौटे। विदेश में उनका ज्यादा समय गुरु निर्देशानुसार विभिन्न आश्रमों में बीता। अतिधर्मभीरु रंजन अपनी माँ की तरह अति धार्मिक था। शौकीन और पिता की दुलारी पुत्री रंगीली, प्रणय क्षणों के लिए तरस कर रह गई।
रंगीली ने अपने और अपने अल्पशिक्षित पति की सोच-समझ में जमीन आसमान का अंतर देख हैरान थी। हनीमून की खूबसूरत यात्रा को उसके पति ने धार्मिक तीर्थयात्रा में बदल दिया था। पर संध्या होते रंजन अक्सर गायब हो जाता था। एक दिन वह भी रंजन के पीछे-पीछे चल दी। पास के बार में उसने रंजन को मदिरा और बार बाला के साथ प्रेममय रूप में देख, वह सन्न रह गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि रंजन का कौन सा रूप सच्चा है।
विदेश से लौटने तक दोनों में अनेकों बार नोक-झोंक हो चुका था। दोनों अपने ठंढे मधुयामिनी से वापस लौटे। रंगीली उदास और परेशान थी। उनके साथ में आया आश्रम के विदेशी शाखाओं में नए बने शिष्यों की लंबी सूची। जिसने सभी में खुशियाँ भर दी। किसी का ध्यान रंगीली की उदासी पर नहीं गया।
विदेशी शिष्यों की संख्या बढ़ने से रंजन और रंगीली की जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं। अतः दोनों अपना काफी समय आश्रम में देने लगे। साल बितते ना बितते दोनों माता-पिता बन गए। प्यारी-प्यारी पुत्री एंजेल पूरे आश्रम और रंजन – रंगीली के पूरे परिवार का खिलौना थी। गुरु महाराज के असीम कृपा से दोनों परिवार कृतज्ञ था।
एक दिन, जब दुखित और व्यथित रंगीली ने गुरु महाराज से रंजन के विवेकहीन चरित्र और व्यवहार के बारे में बताया, तब उन्होंने उसे समझाया कि यह सब उसके कुंडलीजनित दोषों के कारण हो रहा है। उन्हों ने पहले ही बताया मंदिर में कार सेवा से दोष दूर होगा।अब रंजन और रंगीली, दोनों अब लगभग आश्रमवासी हो गए थे।रंगीली के पिता भी अब धीरे-धीरे उच्चपदासीन दामाद के ना मिलने के क्षोभ और दुख से बाहर आने लगे थे।
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शाम का समय था। मौसम बड़ा खुशनुमा था। रिमझिम वर्षा हो रही थी। चारो ओर हरीतिमा थी। हरियाली की चादर पर, पास लगी रातरानी की बेल ने भीनी- भीनी खुशबू बिखेर दी थी। सामने बड़े से बगीचे में रंग बिरंगे फूल आषाढ़ महीने के मंद समीर में झूम रहे थे। आश्रम का पालतू मयूर आसमान में छाए बादल और रिमझिम फुहार देख कर अपने पंख फैलाये नाच रहा था। रंजन और रंगीली अपनी बेटी और पूरे परिवार के साथ आश्रम में अपनी छोटी कुटियारूपी कौटेज के बरामदे में गरम चाय की चुसकियों और गर्मागर्म पकौड़ियों के साथ मौसम का मज़ा ले रहे थे। पाँच वर्ष की एंजेल खेल-खेल में अपने पिता के अति मूल्यवान मोबाईल से नृत्यरत मयूर की तस्वीरें खींच रही थी।
“ क्या जीवन इससे ज्यादा सुंदर और सुखमय हो सकता है? – रंजन ने मुस्कुरा कर पूछा। थोड़ा रुक कर उसने माता-पिता, सास-स्वसुर और अपनी पत्नी पर नज़र डाली और कहा – “कल गुरु पूर्णिमा है। मैंने गुरु जी के लिए स्वर्ण मुकुट और नए वस्त्र बनवाए हैं। मुझे लगता है, कल ब्रह्म मुहूर्त में हम सभी को उन्हें उपहार दे कर आशीर्वाद ले लेना चाहिए। खुशहाल और संतुष्ट परिवार ने स्वीकृती दे दी। सुबह-सुबह स्नान कर शुद्ध और सात्विक मन से सारा परिवार गुरु महाराज के कक्ष के बाहर पहुंचा। द्वार सदा की तरह खुला था। भारी सुनहरा पर्दा द्वार पर झूल रहा था। पूर्व से उदित होते सूर्य की सुनहरी किरणें आषाढ़ पूर्णिमा की भोर को और पावन बना रहीं थीं। कमरे से धूप की खुशबू और अगरबत्ती की ध्रूमरेखा बाहर आ रही थीं। थोड़ी दूर पर बने मंदिर से घण्टियों की मधुर ध्वनी और शंख की आवाज़ आ रही थी।
गुरु जी के कुटिया के आस-पास पूर्ण शांती थी। दरअसल बहुत कम लोगों को यहाँ तक आने की अनुमति थी। पर रंजन और रंगीली के लिए गुरु जी के द्वार हमेशा खुले रहते थे। अतः दोनों बेझिझक आगे बढ़े। तभी, अंदर से आती किसी की खिलखिलाने और गुरु जी के ठहाके की आवाज़ सुनकर आधा हटा पर्दा रंजन हाथों में अटका रह गया। पर्दे की ओट से पूरे परिवार ने देखा, बिस्तर पर गुरु जी की बाँहों में उनकी निकटतम शिष्या मेनका हँस कर पूछ रही थी – यह सब इतनी सरलता से आपने कैसे किया?
गुरु जी अपनी अधपकी दाढ़ी सहलाते हुए कह रहे थे – “रंजन और रंगीली के बालपन के प्रणयकेली पर तभी मेरे नज़र पड़ गई थी। इतने वर्षों बाद सही मौका मिलते ही, सात जन्मों का बंधन बता कर उसे मैंने भंजा लिया। आज ये दोनों मेरे लिए सोने की अंडा देनेवाले मुर्गी है। देखती हो, इनकी वजह से मेरे आश्रम में स्वर्ण और धन वृष्टि हो रही है। मेनका तकिये पर टिक, अधलेटी हो कर पूछ रही थी – उन दोनों की कुंडलियाँ कैसे इतनी अच्छी मिल गई। गुरु जी ने एक आँख मारते हुए कहा – “वह तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है मेनका !!!सब नकली है।
रंजन और रंगीली को लगा जैसे वे गश खा कर गिर जाएँगे। रंजन की माँ के आँखों से गुरु महिमा धुल कर बह रही थी। दोनों के पिता द्वय की जोड़ी हक्की-बक्की सोंच रहे – क्या उनसे भी धूर्त कोई हो सकता है? जीवन भर इतने दाव-पेंच करते बीता और आज ईश्वर जैसे उन्हें दिखा रहें हों – सौ चोट सुनार की और एक चोट लोहार की। ईश्वर के एक ही चोट ने उन्हें उनके सारे कुकर्मों का जवाब सूद समेत दे दिया था। रंगीली के पिता के नेत्रों के सामने उन योग्य, उच्चपद, उच्च शिक्षित वरों का चेहरा नाचने लगा, जो उनकी प्राणप्यारी सुंदरी पुत्री से विवाह के लिए तत्पर थे।
तभी खटके की आवाज़ से सारे लोग और गुरु जी चौंक गए। नन्ही एंजेल ने खेल-खेल में अपने पिता के मोबाइल से एक के बाद एक ना जाने कितनी तस्वीरें प्रणयरत शिष्या-गुरु के खींच लिए थे।
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VERY NICE
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Thank you.
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NO THANKS MAM ….PLZ
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Ok. Par fir kya Likhu ? 😊😊
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KUCH BHI NAHI
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😊😊
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काफी अच्छी कहानी है… पर मुझे लगा स्वामी जी का भेद थोड़ी और देर में खुलना चाहिए था.. कुछ और घटनाक्रम होते तो मज़ा ही आजाता
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हाँ , कहानी थोड़ी लम्बी हो रहीं थी. इसलिये ज़रा तेजी से अंत किया. लिखने का समय कभी कभी कम मिलता है.
तुम कुछ दिनो बाद नज़र आई. तुम्हारे कॉमेंट का मुझे इंतजार था. बहुत धन्यवाद .
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जी मैम समझ सकती हूं… कुछ दिनों से समय मेरे साथ भी ऐसे ही आंखमिचोली खेल रहा है.. अभी कल wp खोला तो देखा कितना कुछ पढ़ने से रह गया.. लिखते रहिये जब भी समय मिले 😊
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लिखना आदत का हिस्सा बनता जा रहा है. पर समय कब फिसल जाता है. पता ही नहीँ चलता.
बस तालमेल बैठाते रहना है. लिखते और पढ़ते रहना है. 😊😊
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अच्छा है.. पढ़ना हमेशा नए आयाम दर्शाता है और आप जैसे लोगों का लेखन दूसरों को राह बजी दिखता है
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इतनी ढेर सी तारीफ के लिये दिल से शुक्रिया. पर ऐसी बात नहीँ है. इस Platform पर आनk अच्छा लिखने वाले है. जिसमे एक तुम भी हो. 😊😊
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शुक्रिया मैम.. सच मे यहां अच्छा लिखने वाले बहुत है.. पर बात सिर्फ अच्छा लिखने की नही है बात अपनी लेखनी को अपने जीवन मे उतारने और दूसरों को प्रेरित करने की है और ये बात सब मे नही होती
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तुम से बाते करते रहना होगा 😊😊. तुम्हारी मीठी और प्यारी बाते लिखने का हौसला देती है.
बहुत धन्यवाद. आज कल घड़ी का काँटा ज़रा तेजी से भाग रहा है.
इसलिये दिल की बाते पूरे मन से पन्नॊ पर उतार नहीँ पा रहीं हूँ.
तुम्हारा क्या हाल है ?
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😊💐💐💐 वक़्त और दिल का बैर पुराना है
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हाँ, बात तो सही है, पर दिल अौर वक्त दोनों कीमती भी हैं।
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कहानी लंबी है –परंतु बहुत अच्छा लिखा गया है—–
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धन्यवाद. 😊थोड़ी देर पहले किसी ने कहानी को थोड़ा और लम्बी होने की कामना जताई.
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नहीं नहीं मेरा कहने का वो मतलब नहीं——कहानी लंबी है—कहानी लंबी ही होती है—–संतुष्टि का भी अंत नहीं है—-परंतु मजा आया—कब ख़त्म हुआ पता नहीं चला—-बाद में स्क्रोल किया तो पता चला —-वाओ —-इतनी लंबी थी । आपने रेखा जी बहुत अच्छा लिखा है–स्वामी जी….!धन्यवाद
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अरे ! मैंने तो बस किसी की बात लिख दी थी. मैं ही Confused हो गई थी. अक्सर ज्यादा लिखने का time नहीँ मिलता है.
पर हर तरह का विचार या कॉमेंट अच्छा लगता है. सुझाव देते रहिये. 😊
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वास्तव में ऐसे बहुत सारे प्रसंग सुनने को मिलते हैं
आपने इस सामान्य सी कहानी में सौंदर्य रस का भरपूर मिश्रण करके इसे उत्कृष्ट बना दिया !
बहुत अच्छे
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बहुत धन्यवाद ! कहानियाँ तो हमारे जीवन की घटनाओं से ही बनती है. कुछ सच्चाई , कुछ कल्पना और कुछ कलम की कारीगरी…..
वैसे इस कहानी में ज्यादा सच्ची बातें ही है.
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🙏🙏🙏apne kalpana ko bhi Sach jaisa likha Hai
Haan apki vhi line bolunga
Kalam ki karigari
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kahani pasand karne aur tarif ke lite aabhar.
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🙏🙏apko sadar pranam
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God bless you !!!!
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Badhiya…ant tak utsukta bani rahi… Dhanywad rekha Ji ek acchi kahani ke liye…
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Bahut shukriyaa. 😊😊
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बहुत सुंदर
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बहुत आभार !!
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Ma’am this is beautiful ❤
Ma’am it would be great agar mujhe aapki thodi madad mil jaati to 😀 actually i’m new to blogging and need help. 😊
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thank you Sanchi. Kya madad? bataiye….
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Bas ma’am,about how my content can become better and editing main much problem? Followers too ma’am 😅
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See buddy, there isn’t any set rule , but i can suggest you one thing – lots of reading. really helps.
start following blogs of your interest .
Read your own post 2-3 times before posting.
All the best! keep blogging and smiling too.
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Nice
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thank you .
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