तब उन्नीस वर्ष की थी मैं । अभी टीन एज के आखरी वर्ष में थी। बड़ी बेफ़िक्री और मस्ती के दिन थे। आई. ए. परीक्षा के रीजल्ट आ गए थे। बड़े अच्छे अंकों से मैं पास हुई थी। अतः बी. ए. में मनचाहे विषय – मनोविज्ञान में प्रवेश मिल गया था। खुशी-खुशी कालेज में बी. ए. में पढ़ रही थी।
तभी अचानक मेरी शादी तय हो गई। शादी के नाम से इतनी खुश थी, जैसे जीवन का सबसे अनमोल खजाना मिल गया हो। नए कपड़े, गहने, सहेलियों की छेड़-छाड़ में सारी खुशियाँ समाई थी। बड़ी-बड़ी आँखों में ढेरो सपने थे।
नई जिंदगी के नए सपनों के साथ ससुराल पहुँची। पर यह क्या? वहाँ तो जीवन का अर्थ ही कुछ और था। बहू यानि काम करने की मशीन। सुबह से रात तक बीसियों लोगों का भोजन बनाना, चाय पिलाना जैसे कामों में दिन कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। इसके बाद भी दहेज पर छींटाकशी और उलाहनों का अंत नहीं था। इस जीवन की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। दिन भर किसी की एक मीठी बोली के लिए तरस जाती। इस समय मुझे समझ आया कि मैं माँ बनने वाली हूँ।
तभी बी. ए. के परीक्षा की तिथि निकल गई। पढ़ाई बिलकुल ठप्प थी। कालेज छूट गया था। पर मन के किसी कोने में यह ख्याल था कि मुझे किसी भी हाल में परीक्षा देनी है। परीक्षा के समय माईके जाने का अवसर मिला। बड़ी राहत मिली। लगा माँ को सारी बातें बता कर कुछ उपाय निकलेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहाँ से कुछ दिनों के बाद इस आश्वासन के साथ वापस ससुराल भेज दिया गया – घबराओ नहीं। कुछ दिनो में सब अपने आप ठीक हो जाएगा। पर आज तक क्या अपने आप कभी कुछ ठीक हुआ है?
बेटी के जन्म के बाद ससुराल आने पर मुसीबतें और बढ़ गई। साथ में काम भी बढ़ गया। बेटी होने का ताना भी मिलने लगा। घर के कामों में फर्माइशों की लिस्ट बढ़ती गई। यह शायद बेटी के होने की सज़ा भी थी।
मन में अक्सर खयाल आता कि क्या यही मेरी पहचान है? क्या यही मेरा जीवन है? एक बँधुआ मजदूर की तरह खटना और ताने सुनते रहना। रात में यह सब सोंच कर नींद नहीं आती। तब खिड़की के पास खड़े-खड़े ना जाने कितनी रातें बिताईं। आँखों से आँसू बहते रहते। तभी मेरे बी. ए. का रिजल्ट आ गया। खुशी मिश्रित हैरानी हुई। मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से पास हुई थी।
तब मैंने अपने नए जीवन के लिए एक निर्णय लिया। एक नई शुरुआत की ओर कदम बढ़ाने का निश्चय किया और मैंने एम. ए. के प्रवेश का फार्म भर दिया। यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान में सीमित सीटें थी। पर अच्छे अंक होने की वजह से प्रवेश मिल गया। घर के विरोध, काम के बोझ, उलाहनों और नन्ही सी बिटिया के देख-भाल का बोझ तो था। पर कहतें है – दिल से कुछ करने की चाहत हो तो ईश्वर भी मदद करतें है। उसी ईश्वर के आशीर्वाद स्वरूप मैंने एम. ए. किया। फिर पी. एच. डी. किया। आज मैं दो प्यारी बेटियों की माँ, एक सफल गृहणी और कालेज शिक्षिका हूँ। मेरे उस एक निर्णय ने मेरी जिंदगी बदल दी।