जो बनते रहें हैं अपने.
कहते हैं पहचान नहीं पाए तुम्हें !
आँखों पर गुमान की पट्टी ऐसी हीं होती है.
अच्छा है अगर लोंग पहले पहचान लें ख़ुद को।
ज़िंदगी के राहों में,
हम ने बख़ूबी पहचान लिया इन्हें!
जो बनते रहें हैं अपने.
कहते हैं पहचान नहीं पाए तुम्हें !
आँखों पर गुमान की पट्टी ऐसी हीं होती है.
अच्छा है अगर लोंग पहले पहचान लें ख़ुद को।
ज़िंदगी के राहों में,
हम ने बख़ूबी पहचान लिया इन्हें!
भोर हो जाय, धूप निकल आए
तब बता देना. जागती आँखों के
ख़्वाबों.. सपनों से निकल
कर बाहर आ जाएँगे.

Painting courtesy- Lily Sahay
अब स्याही वाली क़लम से लिखना छोड़ दिया है.
कब टपकते आँसुओं से
पन्ने पर पर अक्षर अौ शब्द फैल जाते हैं।
कब आँखें धुँधली हो जातीं हैं।
पता हीं नहीं चलता है।
जब जिंदगी से कोई आजाद होता है,
किसी और को यादों की कैद दे जाता है.
सीखना चाह रहे हैं कैद में रहकर आजाद होना।
काँच के चश्मे में कैद आँखों के आँसू ..अश्कों की तरह.

आँखों की चमक ,
होठों की मुस्कुराहटों ,
तले दबे
आँसुओं के सैलाब ,
और दिल के ग़म
नज़र आने के लिये
नज़र भी पैनी चाहिये.
कि
रेत के नीचे बहती एक नदी भी है.
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